नींद.... में भटकता मन.....
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नींद में भटकता मन
चल पड़ा रात में,
ढ़ूढ़ने सड़क पर.....
खोए हुए .....
अपने अधूरे सपन...
परन्तु ये सड़क तो....
गाड़ी आटो के चीखों से
आदमियों की बेशुमार भीड़ से
बलत्कृत आत्माओं के
क्रन्दन की पीड़ा लिए
अविरल चली जा रही
बिना रुके बिना झुके l
लाचार सा मन
भीड़ में प्रविष्ट हुआ
रात के फुटपाथ पर
सुर्ख लाल धब्बे
इधर उधर थे पड़े
कहीं टैक्सियों के अंदर
खून से सने गद्दे
लहुलुहान हुआ मन
खोजती रही उनींदी आंखे
खोजता रहा बिचारा मन
आखिरकार लौट आया
चीख और ठहाकों के मध्य
यह सोच कर कि......
सभ्य समाज के
पांओं के नीचे.....
किसी की कुचली......
इच्छाओं के ढेर में....
दब कर निर्जीव सा
दम तोड़ दिया होगा
खोया हुआ मेरा.....
अधुरा सपन........
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उर्मिला सिंह
बहुत खूब ...
ReplyDeleteसपने कहाँ मिलते है आज ... छीनना होता है उन्हें ...
मन की भावनाओं को लिखा है ...
हार्दिक धन्य वाद मान्यवर
Deleteवाह !! बहुत खूब ,भावपूर्ण सृजन ,सादर नमन
ReplyDeleteशुक्रिया कामिनी जी
Deleteखूबसूरत प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीया ।
ReplyDeleteआभार आपका राजेश कुमार राय जी l
Deleteबेहतरीन सृजन आदरणीया दी 👌
ReplyDeleteप्रिय अनिता जी स्नेहिल धन्य वाद आपको
Deleteवर्तमान परिस्थितियों को बड़ी ही शालीनता और समाज में व्याप्त कुरीतियों को सूक्ष्मता से विबेचना की गई है इस सुन्दर रचना के माध्यम से...
ReplyDelete"आखिरकार लौट आया....
चीख और फहकों के मध्य..
यह सोच कर कि
सभ्य समाज के
पॉंवों के नीचे..
किसी की कुचली
इक्षाओं के ढेर में
दब कर निर्जीव सा
दम तोड़ दिया होगा...
खोया हुआ मेरा..
अधूरा सपन ...."
आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर रचना दी 👌
ReplyDeleteप्रिय अनुराधा जी हार्दिक धन्य वाद आपको
Deleteहार्दिक धन्य वाद पम्मी जी रचना को साझा करने के लिए
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