चुटकी भर सिन्दूर.....
गतांक से आगे.......
परीक्षा समाप्त होते ही क्षात्रावास से क्षात्राएँ धीरे धीरे घर जाने लगी। छात्रावास खाली होरहा था। कुछ लड़कियों की परीक्षा समाप्त नही हुई थी बस वही रह गईं थी।
हमने भी सभी से विदा लिया क्योंकि हमारा आखिरी साल था। बी .ए. अन्तिम वर्ष की परीक्षा समाप्त कर मैने भी घर जाने की तैयारी कर ली थी । न जाने कब मिलें न मिले अश्रुपूर्ण नेत्रों से हम सभी एक दूसरे के गले लग रहे थे। परन्तु उस भीड़ में देवकी मुझे दिखाई न पड़ी । मन ने कहा "चलो रूम में जाकर मिल आतें हैं..."
परन्तु न जाने क्या सोच कर मेरे कदम रुक गए ।गाड़ी में अपना समान रखवा ही रही थी तभी मेरी कुछ सहेलियों ने कहा"उर्मिल तुम्हारी देवकी आरही है " हमने भी उसी लहज़े में हंसते हुवे कहा "अच्छा तो तुम सभी को क्यों जलन होरही है " ....गमगीन वतावरण , हंसी के ठहाकों से गूंज उठा ..... ! विद्यार्थी जीवन कितना आनंदमय होता है अब सोचती हूँ ...
"गुज़र गये वो अच्छे दिन थे ,जो कभी लौट के नहीं आएंगे"
वो हंसी,वो मस्ती ,प्यार तकरार सभी स्वप्नवत हो गये......
अरे! कहाँ मन भावनाओं में बह गया......
देवकी को देखते ही मेरा चेहरा खिल उठा,मानो मेरी आंखों को उसी का इंतजार था। वह धीरे- धीरे अपने आंसुओंं को छुपाते हुए मेरे करीब आई , मैंने स्नेह से उसे बांहो में भर लिया,बस क्या था उसके सब्र का बांध टूट गया .......
वो सिसक-सिसक कर रोती रही .....
मैंने उसे बहुत चुप कराया पर....
सिसकते-सिसकते उसने कहा.......
"दी ...आज के बाद मेरी आंखों में आंसू नही दिखें गे आपने जैसा बनने को कहा है मैं वैसा ही बन कर दिखाउंगी विश्वास करिये मेरा".....।
एक लिफाफा मुझे पकड़ा कर पैर छूकर चली गई......... मैं उसे जाते हुवे देखती रही .....
जब मेरी सहेलियों ने कहा "अरे भई हम भी आपके हैं,
निगाहें करम इधर भी कीजिये....."और पुनः बोझिल वातावरण ......मुस्कुराहटों में बदल गया।
इस तरह से छात्रावास का सुनहरा समय अतीत के गर्भ में छुप गया.... और हम भी अपने परिवार के साथ समय व्यतीत करने लगे।
आगे पढ़ने की इक्छा होती तो दादी ,चाचा वगैरह मना करते क्योंकि उस समय लड़कियों को ज़्यादा पढाने के पक्ष में समाज नही था,खास कर राजपूत समाज ....।
खैर वक्त बीतता गया समय के सांचे में मैं भी ढलती गई। फिर इसी बीच एक दिन मेरी भी शादी होगई, सभी यादें पुरानी होने लगी तमाम खट्टी मीठी यादों को समेटे न जाने कितने वर्ष बीत गए पर देवकी को भूलना आसान नही था उससे जुड़े प्रश्न मेरा पीछा गाहे बेगाहे करते रहते थे।
हमारे पति ने भी सर्विस जॉइन कर ली । उनके। साथ साथ हम भी कानपुर ,मध्य प्रदेश हिंडाल्को इत्यादि जगहों में घूमते रहे।
तत्पश्चात ओ एन जी सी , देहरादून में जॉइन किया...।
इसी बीच बच्चे भी बड़े होगये ....और जगंह -जगंह शिक्षा ग्रहड़ करने लगे ....।
एक दिन हमारे चाचा जी का गाँव से एक पत्र आया उसे जब खोला तो प्रसन्नता का ठिकाना नही था उसमें देवकी का भी पत्र मिला उस छोटे से पत्र में देवकी ने बहुत कुछ लिख दिया था....।
उसने मेरी एक सहेली से मेरे गांव का पता ले लिया था इतने दिनों के बाद उसका ये पत्र पाकर मैं खुसी से झूम उठी परन्तु उस पत्र में उसने सिर्फ लिखा था"दी यह पत्र मैंने चाचा जी को लिखा है आप कहाँ हैं मुझे पता नही परन्तु आप से मिलूंगी जरूर एक दिन.....,
आपकी देवकी अपने पैरों पर खड़ी हो गई है ....
शायद मेरी सजा ही मेरे लिए वरदान होगई"....
बस इसके आगे कुछ भी नही।न अता न पता.....
मेरे समझ में नही आरहा था की ऐसी क्या बात हो गई।
खैर दिन गुज़रते रहे हम भी अपने पारिवारिक दायित्वों को बखूबी निभाते हुए में व्यस्त हो गये .....
मेरे पतिदेव भी यदा कदा पूछ लिया करते थे की भाई तुम्हारी सहेली का क्या हुआ ? मैं मुस्कुरा कर टाल दिया करती थी........
समय अपनी रफ़्तार से चल रहा था ....
हम भी उसी की धार में बह रहे थे.....
हमारी पड़ोसन की लड़की की शादी पक्की हुई... प्रत्येक रस्म पर हम पूरे परिवार सहित आमन्त्रित होते थे। उनके घर लड़की की शादी का संगीत था,बाहर वाले मेहमान भी आरहे थे एक तो देहरादून घूमने का शौक दूसरे शादी सोने पर सुहागा।
उनके ड्राइंग रूम में संगीत चल रहा था सभी गाने बजाने में मस्त थे तभी बाहर से कई लोगों की एक साथ हंसने की आवाज सुनाई पड़ी .....
गाते -गाते हम सभी का ध्यान शोर की तरफ आकर्षित हुआ तो देखा कि मिसेज मिश्रा के संग एक 55- 60 साल की ओरत सौम्य चेहरा गम्भीरतायुक्त आंखे उसके साथ एक युवक हंसता हुवा चला आरहा है एकाएक सभी की आंखे उन अजनबी चेहरों पर ठिठक गई....।
मैने भी पलके उठा कर देखा....और देखती रह गई कुछ देर तक.....जाना - पहचाना सा चेहरा लगा फिर किसी से बात करने लगी पर.......ये क्या वह तो सभी को छोड़ मेरे ही पास चली आरही थी एक मिनट को तो मैं भी स्तब्ध रह गई......
परन्तु दूसरे ही पल उन्हें झुकते देख सभी कुछ चल चित्र की भांति सामने आगया वह कोई और नही मेरी प्रिय देवकी थी। खुशी की तो पूछिये मत सभी लोग इस दृश्य को देख ठगे रह गए। उसने - अपने साथ के युवक से मेरा परिचय कराया और बताया दी यह मेरा बेटा है उस युवक ने पैर छू कर अभिवादन किया और कहा "आप उर्मिल मासी हैं न, मां आपकी बाते किया करती थीँ " मैंने हंस कर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेर करआशिर्वाद दिया
हजारों प्रश्न मन में थे परन्तु.........।
गीत- संगीत चलता रहा .....
हम सभी चाय नास्ता कर रहे थे साथ ही साथ बातों का भी दौर चलता रहा ...। देवकी ने मुझ से पूछा" पूछेंगी नही दी कि ये लड़का तुम्हारा है"मैंने हंस दिया उसका दूसरा पश्न था" दी आज मैं आपके पास रहूंगी" मैंने कहा ये तो मेरे लिए सौभाग्य की बात है।
प्रोग्राम समाप्त होते ही "सजल" जो उसके लड़के का नाम था अपने दोस्त के यहां देवकी से पूछ कर मिसेज मिश्रा के लड़के के साथ चला गया।हम देवकी को अपने घर ले आये। रात्रि का भोजन उन्हीं के घर होगया था....
बस रात तो अपनी थी पतिदेव भी देवकी से बातें करके चले गए। बगैर किसी प्रस्तवना के देवीकी ने बोलना शुरू किया "दी यह बेटा मुझे भगवान का दिया हुआ उपहार है..... ,आज भी वो बरसात की रात मुझे याद है जब मैंने एक युवती को पानी में भीगते हुए अपने गेट के पास गोद में बच्चे को आँचल से छुपाये ठंढ से कांप रही थी," बरामदे में बैठी मैं किताब पढ़ रही थी अचानक मेरी निगाह गेट पर गई मैंने चौकीदार को बुला कर उस औरत को अंदर बुलाया ,मैंने उसे गौर से देखा और कहा कि इतने पानी में छोटे बच्चे को लेकर यहां क्या कर रही हो उसने कहा " मैं इस संसार में अकेली हूँ पति की दुर्घटना में मौत हो गई जहां रहती थी मकान मालिक ने निकाल दिया ,मैडम क्या आप मुझे अपने घर में रक्खें गी मैं "आपका सभी काम करूँगी," मैने उसका नाम पूछा उसने कल्याणी बताया बस यही उसका परिचय था बगैर उसके विषय में ज्यादा जाने समझे हां कर दिया।
मैंने सोचा क्या लेके जाएगी मेरे पास है ही क्या और वह मेरे पास ही रहने लगी कुछ कपड़े मां बेटा के लिए खरीद दिया।
बस यहीं से पतझड़ सरीखे मन में बसन्त का आगमन हुआ,
पहले कॉलेज से घर लौटने के लिए एक -एक कदम भारी होता था पर अब.........घर पहुंचने को आतुर.....।
खुशियों के दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे तभी कल्याणी बीमार पड़ी ...... डॉक्टरों को दिखाया पर केंसर की आखिरी स्टेज बताया.....
मेरी खुशियों के पंख एक बार पुनः लहू-लुहान हो रहे थे......
और एक दिन ऐसा आया जब रुपया पैसा कुछ भी उसे बचा नही सके और वह अनन्त में विलीन हो गई।
मैं सजल को सीने से लगाए किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रही
जब सजल मां को पूछता तो मैं फफककर रो उठती क्या बताती उसे मेरी बदनसीबी ने उसे भी अपने हाँथों डंस लिया। मुझे बड़ी मां कहता उसका नाम एक अच्छे स्कूल में लिखवा दिया एक आया रक्खा पर कॉलेज से आने के बाद पूरा समय उसी के साथ बीतता।आज वह अच्छे पद पर है बाहर जाने का भी ऑफर आया पर बड़ी मां को छोड कर उसे कहीं जाना स्वीकार नही .....बहू के भी पांव भारी हैं ।बहू से बेटी जैसा प्यार पा कर निहाल हो जाती हूँ"बस यही कहानी है "ममत्व का सुख पाकर चुटकी भर सिन्दूर की सजा भूल गई दीदी"..........
उर्मिला सिंह