शोहरत की मदिरा पर
मत कर इतना गुमान रे इंसान
मत कर इतना अभिमान !
है ये चार दिनों का खेला
आज है कल मिट जाए रें इंसांन
मत कर इतना अभिमान !
महल अटारी ढह जायेंगे
सत्कर्मों का लेखा जोखा ही नाम तेरा फैलाएगे
माया लोभ के वस मैं आकर
नफ़रत के जाल क्यों फैलाये रे इंसान,
मत कर इतना अभिमान !
जब छाये रात घनेरी ,
जब सूझे ना पथ दूजा कोई
अंतर्मन का दीप तेरा राह दिखाए रे इन्सान,
मत कर इतना अभिमान !
परोपकारी के राहों में काटें
बन पुष्प बिखर जाएं रे इंसान ,
मत कर इतना अभिमान !
श्रेष्ठ वही जीवन जो
औरों के दुख दर्द में
करुणासिक्त बन बांह गहे रे इंसान
मत कर इतना अभिमान !
मन मंथन कर सोच जरा
मानव निर्मम बन भवसागर
कैसे पार करे रे इंसान ....
मत कर इतना अभिमान।
*****0*****0*****
उर्मिला सिंह
महल अटारी ढह जायेंगे
ReplyDeleteसत्कर्मों का लेखा जोखा ही नाम तेरा फैलाएगे
माया लोभ के वस मैं आकर
नफ़रत के जाल क्यों फैलाये रे इंसान,
मत कर इतना अभिमान !
बहुत सुंदर और सार्थक रचना दी 👌
स्नेहिल धन्यवाद प्रिय अनुराधा जी।
Deleteहार्दिक धन्यवाद यशोदा जी हमारी रचना को साझा करने के लिए।
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब उर्मिला जी । सब कुछ जानता है इंसान ,यहीं दरा रह जाएगा सब ,फिर भी करता है गुमान ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शुभ जी ।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया मान्यवर ।
Deleteश्रेष्ठ वही जीवन जो
ReplyDeleteऔरों के दुख दर्द में
करुणासिक्त बन बांह गहे रे इंसान
मत कर इतना अभिमान !
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर सार्थक लाजवाब सृजन।
आभार सुधा जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सार्थक सृजन दी ।
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