आज की सच्चाई---बोलती कलम
विवेक पर अविवेक का आधिपत्य होता जारहा है
सत्यता पर असत्यता अभिशाप बनता जारहा।
भौतिकता की तपिश मेंआत्मीयता जलती जारही
संवेदनाओं से सिसकियों का स्वर सुनाई पड़ता जारहा ।
बेशक इन्सान ने तरक्की बेहिसाब किया है
सरलता सादगी भोलेपन से दूर होता जारहा ।
बहुजन हिताय ,स्वान्तः सुखाय हो गया अब
वोट हासिल करना एकमात्र ध्येय होता जारहा
इन्सान निर्ममता की पराकाष्ठा पर पहुंच गया
हैवानियत के सांचे में ढल बर्बरता अपनाता जारहा।।
लालच ,अभिमान की केंचुली ऐसी चढ़ी पर्त् दर पर्त्
भले बुरे का भान नही ,ख़ुद की जड़े खोदता जारहा।।
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उर्मिला सिंह
सच आज का इंसान कभी न समझने वाला जीव बनता जा रहा है
ReplyDeleteबहुत सही
हार्दिक धन्यवाद कविता रावत जी।
Deleteभौतिकता की तपिश मेंआत्मीयता जलती जारही
ReplyDeleteसंवेदनाओं से सिसकियों का स्वर सुनाई पड़ता जारहा ।
..सत्य कथन..अंधी दौड़ में इंसान मानव मूल्य को भूलता जा रहा है..
आभार आपका जिज्ञासा सिंह जी।
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