जिंदगी तेरी हर बात निराली है
मुट्ठी बन्द आती ,जाती हाथ खाली है।
ओरत का झुकना उसे ऊचां स्थान देता है
फलो ,फूलों से भरी झुकती वही डाली है।
जिधर देखो वहीं आदमी रंगबिरंगा है
हर चेहरा लगता यहां पर जाली है।
तरसता जो छप्पर और रोटी को
उसे क्या समझ चाँदनी है या रात काली है।
ऐ मालिक!तेरे गुलशन की हालत क्या हो रही
पतझड़ ही नज़र आता तेरी इक नज़र के सवाली है।
उर्मिला सिंह
हृदय से निकली संवेदनशील अभिव्यक्ति । अभिनन्दन उर्मिला जी ।
ReplyDeleteआभार आपका जितेंद्र माथुर जी।
Deleteहार्दिक धन्यवाद डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री जी हमारी रचना को चर्चा में शामिल करने के लिए।
ReplyDeleteवाह !!!
ReplyDeleteबहुत खूब !!!
बहुत बहुत धन्यवाद डॉ शरद सिंह जी।
Deleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteशुक्रिया कामनी सिन्हा जी।
Deleteबहुत सुन्दर कृति।
ReplyDeleteआभार आपका शांतनु जी।
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