आज.....
रंगों भरा आसमाँ दिल के
कैनवास पर उतर आता है
मैंने भी सोचा चलों पन्नो के कैनवास पर...
कुछ तस्वीरें बनाती हूँ.....
रंग बिरंगी ,प्रकृति की मनोरम छटा
कल-कल बहती नदी......
लहराता सागर.....
पनघट पर आती-जाती ओरतें.....
खेतों की हरियाली .......
झूमती कलियां - खिलतें फूल...
रम गया मन, चित्रों को .........
केनवास पर बनाने में
सधे हाथों ब्रश चल पड़ा....
कुछ अंतराल के बाद.....
ब्रस रोक कर देखती हूँ
केनवास पर की गई अपनी चित्रकारी,
स्तब्ध रह जाती हूँ.......
उसपर मानसिक विकृतियों....
के अनेक रूपों का चित्र बना था
ऐसा लग रहा था मानो...
समाज की सारी विकृतियां
इस कैनवास पर मुझे
चिढ़ा रही हैं....
मैं सिर पकड़ कर बैठ गई....
शून्य की तरफ़ देखती रह जाती हूँ।।
उर्मिला सिंह
विचार प्रतिबिंब होते हैं...गहन भाव उकेरती बेहतरीन अभिव्यक्ति दी।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १६ जून २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
श्वेता जी हमारी रचना को मंच पर साझा करने के लिए धन्यवाद।
Deleteब्रस को ब्रश कर लें
ReplyDeleteआभार आपका विभा जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना आदरणीया
ReplyDeleteआभार आपका मधुलिका जी
Deleteमन की विसंगतियाँ छिपाये नहीं छिपती।अभिव्यक्ति चाहे कैसी भी हो उसमें से झाँक ही लेती हैं।बेहतरीन रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं प्रिय उर्मि दीदी।बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा।सस्नेहाभिवादन 🙏🙏🌹🌹
ReplyDeleteप्रिय रेणु जी स्नेहिल धन्यवाद
Deleteकैनवास पर मन से चित्र उतारें यो मन की विकृतियां छुपी नहीं रह सकती...
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन
वाह!!!
धन्यवाद सुधा जी
Deleteसुंदर काव्य सृजन
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मान्यवर
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