Saturday, 8 November 2025

प्रातः नमन

कौन कहता है कि भगवान नहीं होता?

        जब कोई नज़र नहीं आता 

        तो भगवान नजर आता है

 खुदबख़ुद नजरें आसमां पर उठ जाती हैं

 एक विश्वास एक भरोसा मन में जग जाता है।

          

प्रातः नमन

कौन कहता है कि भगवान नहीं होता?

        जब कोई नज़र नहीं आता 

        तो भगवान नजर आता है

 खुदबख़ुद नजरें आसमां पर उठ जाती हैं

 एक विश्वास एक भरोसा मन में जग जाता है।

          

Tuesday, 29 April 2025

कर्म ही तेरी पहचान है..

कर्म ही तेरी पहचान है
******************

कंटक मय पथ तेरा ,
सम्भल- सम्भल कर चलना है !
चलन यही दुनिया का,
पत्थर में तुमको  ढलना है!!

उर की जलती ज्वाला से , मानवता जागृत करना है!
जख्मी पाँवों से नवयुग का, शंखनाद तुम्हे अब करना है !!

हरा सके जो सत्य को,
हुआ नही पैदा जग में कोई!
असत्य के ठेकेदारों का,
पर्दा फास तुझे अब करना है !!

वक्त से होड़ लगा,
पाँवों के छाले  मत देख !  
कर्मों के गर्जन से ,
देश को विश्वास दिलाना है!!

दृग को अंगार बना,
हिम्मत को तलवार !
दुश्मन खेमें में हो खलबली,
कुछ ऐसा कर जाना है !!

तुम सा सिंह पुरुष देख,
भारत माँ के नयन निहाल!
कोहरे से आच्छादित पथ, 
कदम न पीछे करना है !!

मिले हुए शूलों को अपना,
रक्षा कवच बनाना है !
कर्म रथ से भारत का ,
उच्च भाल तुझे करना है !!

           🌷उर्मिला सिंह🌷

Sunday, 9 March 2025

नींद में भटकता मन....

नींद.... में भटकता मन..... 

*****0*****0*****

नींद में भटकता मन 

चल पड़ा रात में, 

ढ़ूढ़ने सड़क पर..... 

खोए हुए ..... 

अपने अधूरे सपन... 


परन्तु ये सड़क तो.... 


गाड़ी आटो के चीखों से 

आदमियों की बेशुमार भीड़ से 

बलत्कृत आत्माओं के 

क्रन्दन की पीड़ा लिए 

अविरल चली जा रही 

बिना रुके बिना झुके l 


लाचार सा मन 

भीड़ में प्रविष्ट हुआ 

रात के फुटपाथ पर 

सुर्ख लाल धब्बे 

इधर उधर थे पड़े 

कहीं टैक्सियों के अंदर 

खून से सने गद्दे 

लहुलुहान हुआ मन 

खोजती रही उनींदी आंखे 

खोजता रहा  बिचारा मन 


 आखिरकार लौट आया 

 चीख और ठहाकों के मध्य 

 यह सोच कर कि...... 

 सभ्य समाज के 

 पांव के नीचे..... 

 किसी की कुचली...... 

  इच्छाओं के ढेर में.... 

 दब कर निर्जीव सा 

 दम तोड़ दिया होगा 

खोया हुआ मेरा..... 

अधुरा सपन........ 

*****0*****0****

उर्मिला सिंह 











नींद.... में भटकता मन..... 

*****0*****0*****

नींद में भटकता मन 

चल पड़ा रात में, 

ढ़ूढ़ने सड़क पर..... 

खोए हुए ..... 

अपने अधूरे सपन... 


परन्तु ये सड़क तो.... 


गाड़ी आटो के चीखों से 

आदमियों की बेशुमार भीड़ से 

बलत्कृत आत्माओं के 

क्रन्दन की पीड़ा लिए 

अविरल चली जा रही 

बिना रुके बिना झुके l 


लाचार सा मन 

भीड़ में प्रविष्ट हुआ 

रात के फुटपाथ पर 

सुर्ख लाल धब्बे 

इधर उधर थे पड़े 

कहीं टैक्सियों के अंदर 

खून से सने गद्दे 

लहुलुहान हुआ मन 

खोजती रही उनींदी आंखे 

खोजता रहा  बिचारा मन 


 आखिरकार लौट आया 

 चीख और ठहाकों के मध्य 

 यह सोच कर कि...... 

 सभ्य समाज के 

 पांव के नीचे..... 

 किसी की कुचली...... 

  इच्छाओं के ढेर में.... 

 दब कर निर्जीव सा 

 दम तोड़ दिया होगा 

खोया हुआ मेरा..... 

अधुरा सपन........ 

*****0*****0****

उर्मिला सिंह 











Tuesday, 25 February 2025

बिखरी जिंदगी..


  

बिखरी जिंदगी......

 ************

दिल टूटता गया 

 हम बिखरते गए

सम्हलने की कोशिश में

हर बार  शिकस्त खाते गए

 लहूलुहान कदम

चलते रहे दर्द चुभते रहे

   अधर मुस्कुराते रहे

तन्हाइयों से अश्क ...

गुफ्तगू करते.....

 बिखरी जिंदगी को ....

समेटने की कोशिश

 फिर वहीं....

उदासी के लिबास में 

 लिपटी मेरी मुस्कान

न शिकवा न शिकायत

 मेरी बिखरी जिन्दगी  को

 हौसला देते, बस हौसला देते

 हम खामोश,निर्विकार

      🌷उर्मिला सिंह🌷