Monday 13 May 2024

हम स्वतंत्र हैं

       कुछ न कहिये जनाब  स्वतंत्र हैं हम........

           बोलने की आजादी है --तो

       नफ़रत फैलाने की स्वतन्त्रता---- भी

       लिखने पर कोई रोक टोक नही --तो

       शब्दों की गरिमा भी समाप्ति की.....

       देहरी पर सांसे गिनती दम तोड़ रही है....

       

       कुछ न कहिये जनाब  स्वतन्त्र हैं --हम....


        बच्चे हैं तो क्या हुआ, स्वतंत्र हैं --हम

        मां बाप का कहना क्यों माने.....

        अपनी मर्जी के मालिक हैं -- हम

        हमें पालना जिम्मेदारी है उनकी...

        आखिर बच्चे तो उनके ही हैं --हम।


        कुछ न कहिये ज़नाब स्वतन्त्र हैं --हम.....

        

       गुरु शिष्य का नाता पुस्तकों में होता है...

       आदर भाव तो बस सिक्कों से होता है।

       भावी समाज का निर्माण हमसे होता है...

   संसद से समाज तक  स्वतन्त्रता का परचम.

       लहराते  धर्म नीति की धज्जिया उडातें ...

     स्वतन्त्र  भारत के स्वतन्त्र नागरिक हैं हम

       

    कुछ न कहिये ज़नाब स्वतन्त्र हैं-- हम......!

      त्रस्त सभी इस स्वतन्त्रता से....

       पर आवाज उठाये कौन....!

      स्वतन्त्रता को सीमित करने की ....

      नकेल पहनाए कौन.....!!

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                            उर्मिला सिंह

      



      

    

   

        

        

                                  

        


           

Sunday 31 March 2024

अन कही व्यथा......

अन कही व्यथा

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अनकही व्यथा दर्द का भंडार है

कहूं किससे दर्द में डूबा संसार है

मन  ठूंठ सा लगने लगा है अब.…

दरक्खत से पत्ते गिरने लगे हैं अब...


जिंदगी धूप में  छांव  ढूढती है 

हर पल ख्वाब के सुनहले सूत बुनती है 

खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाएंगे....

इसी एहसास के सहारे सांस चलती है।


ढूंढती रहती आंखें खोए हुवे लम्हों को

हकीकत के चश्में अपनों के चेहरों को

काश फ़साना  बनती न जिन्दगी यूं.....

मौत भी आसान लगती जिन्दगी को।।


सदाए देती हैं ये हवाएं आज भी....

उम्र के पन्नों पर लिखा प्यार का हर्फ आज भी

समझ न पाया ये जग मोहब्बत की बात को

उम्र मोहताज आखिरी सीढियां पार करने को।।


        उर्मिला सिंह

   

             







Saturday 9 March 2024

बस यूं ही....जख्मों की अन कही कहानी....

ज़ख्म से जब जख्म की आंखे मिली

दिल के टुकड़े हुवे जख्म मुस्कुराए.....।


जख्म ने  हंस कर जख्म से पूछा.....

कहो कैसे गुजरे दिन अश्कों के समंदर में...।


अतीत के अंचल के साए में रात गुजरी

दिन की न पूछ यार मेरे की कैसे गुजरी।।




        उर्मिला सिंह

Tuesday 27 February 2024

बस यूं ही......

  
तनहाइयां बेहतर हैं उस भीड़ से जनाब
 जहांअपनापन दम तोड़ता हो ओढ़े नकाब ।।

 मरहम चले लगाने तो गुनहगार हो गए हम
 तेरे यादों के पन्नों में ख़ाकसार हो गए हम ।।

जब तक कलम से भाओं की बरसात नही होती
ऐ जाने ज़िगर हमारी दिन और रात नही होती।।

  यादों की परी मुस्कुरा के इशारों से बुलाती हमे
  बेखुदी में चले जारहे,अब न रोके कोई हमें।।

   शब्दों के अलावा कुछ और नही मेरा....
शजर लगा के बियाबान में भटकता दिल मेरा।।

                   उर्मिला सिंह

Sunday 18 February 2024

नारी...का दर्द

सात भांवरों की थकान उतारी न गई

दो घरों के होते हुवे नारी पराई ही रही।

जिन्दगी का सच ही शायद यही है.....

सभी कोअपनाने में  अपनी खबर ही न रही।।

पर ये बात किसी को समझाई न गई।।

               उर्मिला सिंह


   


Saturday 10 February 2024

ख्वाब....मन और मैं......

कभी कभी मन ख़्वाबों के .....

वृक्ष लगाने को कहता......

सीचने सावारने को कहता....

दिमाग कहता ....

पगली !तेरे पौधों को सीचेंगा कौन

 किसे फुर्सत है .....

तेरे ख्वाबों को समझने का......

 तेरी आशाओं की .....

  कलिया चुनने का.....

 ये दुनिया वर्तमान को जीती है

  अतीत को भूल जाती है .....

   भविष्य के सपने बुनती है.....

   इस तरह जिन्दगी चलती है 

    जिन्दगी की इतनी सी कहानी है.....

  तुम  हो, तो दुनिया अपनी है

    नही तो एक भूली बिसरी कहानी है।

               उर्मिला सिंह


      


Friday 2 February 2024

बस यूं ही....कलम चल पडी

      बस यूं ही....कलम चल पड़ी।

  जीवन की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों पर

 कभी धूप छांव कभी कंटकों पर चल पड़ी

     आंसू और मुस्कुराहटों सेउलझ पड़ी।।


        बस यूं ही ......कलम चल पड़ी।



        कभी सूनी दीवारों को देखती 

       यादों के चिराग जला कुछ ढूढती

           नज़र आते मकड़ी के जाले

      छिपकली के अंडे टूटी सी खटिया पड़ी।।


           बस यूं ही .....कलम चल पड़ी।



            कुछ नीम की सूखी दातून 

     तो कुछ पुराने दंत मंजन की पुड़िया पड़ी

          साबुन के कुछ टूटे टुकड़े

    गर्द धूल से भरी टूटी आलमारी रोती मिली।।

  

        बस यूं ही .....कलम चल पड़ी।


    मेज पर पडे कुछ पुराने कागज के पुलिंदे,

        बिखरे अपनी करुण दास्तां सुनाते 

           गुजरी रातों की कहानी सुनाते।

       कलम चलती रही शब्द तड़पते रहे

    रूह सुनाती रही दस्ता अपनी पड़ी पड़ी।।


          बस यूं ही.....कलम चल पड़ी।


       पूजा की कोठरी के धूप की सुगंध -

      से लगता सुवासित आज भी खंडहर

     मंत्रोचारण घंटे की आवाज गूंजती कानों में

        शंख ध्वनि प्रार्थना के भाव प्रचंड 

   कलम भी दर्द की कराह से हो गई खंड खंड

   कुछ न कह सकी बस चलते चलते रो पड़ी।।


          बस यूं ही.....कलम चल पड़ी।

                     उर्मिला सिंह