Saturday, 22 September 2018

तृष्णा का सागर...

तृष्णा के सागर में लिप्त मानव स्वयम को भी भूल जाता है।
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सागर  सी  तृष्णा, अंत न  जिसका होता
मृग मरीचिका सी तृष्णा जीवन घेरे रहता
मोह ,माया भौतिक जीवन,अपरमित इक्छायें
हे अनन्त!तेरी दिव्य ज्योति मुझे अपनी,
लघुता का पल छिन है आभास कराये!!

मेरे विकल मन की व्यथा  तेरी करुणा हर लेती!
वाष्प सदृश्य मेरी तृष्णा बादल में घुलमिल जाती!
जीवन के भोग विलास कृतमता का आभास दिलाते
मेरा रोम रोम तेरे दिव्य ज्ञान से आलोकित होता!
आकांक्षाओं के सागर से उबार सही राह दिख लाते!

हेअनन्त आशान्ति के सागर से महाशन्ति की राह दिखाते!!
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                                🌷ऊर्मिला सिंह

17 comments:

  1. behtarin rachna...sundar bhav k saath

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  2. वाह दी बहुत सटीक रचना ....नमन

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  3. यथार्थ रचना दी तृष्णा सागर से भी विशाल और भ्रमित करने वाली ।

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २४ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  5. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद अनिता जी

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  6. उत्कृष्ट सृजन....
    वाह!!!

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  7. बहुत सुंदर रचना 👌

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  8. सार्थक रचना आदरणीय उर्मिला जी |

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