Saturday, 29 December 2018
Thursday, 27 December 2018
Monday, 24 December 2018
राजनीति, का मौसम
नमनआप सभी को.....
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नित्य ही राजनीति नये नये शब्दों को चुन अपने तरकस से प्रहार कर रही है।
कोई अपनी उपलब्धियों पर तो कोई ,बगैर उप लब्धियों के बढा चढ़ा के बोलने की कला में अपने को प्रवीण दिखा रहा है।
हर कोई निजी स्वारथ को हथियार बना जनता के समक्ष अपने को पेश कर रहा है।अपनी बुद्धि की खुरपी से वेसे ही खुराफात निकाल रहा है जैसे माली घास निकालता है।वास्विकता यह है कि आज लोकतंत्र जनता के आंसुओं से गिला है।इसी को इंगित करती मेरी रचना आप सभी के समक्ष एक प्रयास है!
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झूठे बोल ,अभद्र शब्दों की माला जपते रहे
जनता के समक्ष पल पल रूप अपना बदलते रहे!
अन्धेरे समझते,उजाले मुठियों में कैद हैं उनके
उन्हें क्या पता सूरज आसमाँ में प्रकाशित सदा होते रहे!!
चिराग तूफानों में भी जलाता रहे, ऐसी सख़्शियत लाओ
अन्धेरे को फैलने न दो रखवाले देश का लाते रहो!!
सियासत से खाली मन्दिर मस्जिद नही मिलते
संकटमोचन भी आज नेताओं से परेशान होते रहे!!
दुकानदारों ने लूटा जम कर सारी दुकानों को
पहरेदार को ही चोर कह हंगामा मचाते रहे!!
🌷 उर्मिला सिंह
Sunday, 23 December 2018
गरीबी....
गरीबी में टूटते ख्वाबों के संग जीना कहां आसान होता है
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गरीबों की ....जिन्दगी में ,
सपनो की...... चिताएं जलती हैं!
पिघलते दर्द वेदना के .....
ज्वार भाटा सी ......कसक उठती है!
ऊँचे महलों में .....रहने वालों को,
होश रहता नही .....झोपड़ियों का
दब के रह जाती .....सिसकियां
सुनने वाला कोई .... रहता नही है!
इसी हाल में जीते....... ,
इसी हाल में मर जाते......'
सियासत खूब होती है......
लुभावने वादे खूब होते हैं......।
जरूरत वोट की पूरी होते ही...
पानी के बुलबुले से बह जाते हैं।।
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ऊर्मिला सिंह
Thursday, 20 December 2018
जिन्दगी.... को परिभाषित कर न पाया कोई,वक्त के साथ बदलती रहती है जिंदगी।
जिन्दगी भी क्या अजीब चीज होती है ......
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जिन्दगी भी क्या अजीब होती है!
उम्मीदों के गुब्बारों से खेलती है!
कभी नटखट सी खुश हो तालियां बजाती!
कभी बिखरे पन्नों सी बिखर जाती है!!
जिन्दगी भी क्या अजीब चीज होती है!
दुनियादारी के सबक के संग संग चलती!
वक्त से कदम मिला उम्र के पड़ाव जीती!
हकीकतों की सुलगती धरती पर आंखमिचौली खेलती!
ख़ुद को क़तरा क़तरा सँवारती बढ़ती जाती!!
जिन्दगी भी क्या अजीब चीज़ होती है!
दिल के हर मौसम को जानती समझती!
सारी आकांक्षाओं इक्छाओं को है चेरी बनाती!!
उम्र की आखिरी दहलीज पर कदम बढाती !
सुखी टहनी सी सख्त कभी पंख सी मुलायम लगती!!
जिन्दगी भी क्या अजीब चीज होती है!!
अल्फाजों से परे एक साज होती जिन्दगी!
मीठी कुछ खट्टी रचती महाकाव्य रहती जिंदगी !!
जिंदगी में उफह,आह ,अहा बेशुमार होतें है यारों!
ब्रम्हाण्ड के जादुई तिलिस्म में कैद रहती जिंदगी!!
जिन्दगी भी क्या अजीब चीज होती है !
कहने को हमारी,पर हमारी होती नही है!!
जिन्दगी भी क्या अजीब चीज होती है!!
🌷उर्मिला सिंह
Sunday, 2 December 2018
क्षितिज......
दूर कही क्षितिज से....लगता है जैसे.....
धरती व गगन मिले श्रावणी उमंग में।
भीनी भीनी बयार बहे संदली सुगन्ध में।
बज रही ....मन तरँग ....उत्सवों के रंग में।
हरित धरा लहरा रही कृषकों के उमंग में।।
तट व्याकुल भये..... मिलन के आनन्द में।
नृत्य भाव जग रहे.... सागर के आनन्द में।
पात पात सुघड़ हो रहे ..वर्षा के नहान से।
वन हर्षित होरहे पी-पी पपीहा की गूँज से।।
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🌷ऊर्मिला सिंह
भारत के जाँबाज सैनिक
भारत के जाँबाज सैनिक
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भरो हुँकार ऐसी धरती से अम्बर तक हिल उठे
शौर्य की हो अंगार वृष्टि, अरि तृण से जल उठे
यम के समक्ष जैसे चलता नही वश किसी का
काटो मुंड दुश्मनों के ,जीत की दुंदभी बज उठे!!
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🌷उर्मिला सिंह
सियासत का खेल .....
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सर्द मौसम भी अब गरम हो रहें है
सियासत में आग के गोले बरस रहें है!
तीखी मिर्ची सी जुबाँ होगई सभी की
नेता संस्कारों की होली जला रहैं है!
दुनियाँ के मालिक राजा राम भी चकित हैं
जिसका घर वही अब बेघर हो रहें हैं!
भक्तों की लम्बी लम्बी कतारे लगी हैं
कोई जनेऊधारी तो कोई गोत्र बता रहें हैं!
सियासत का खेल देखिये चुनावों के समय
सभी को अयोध्या में राम मन्दिर याद आ रहे है!
पुरुषोत्तम राम,अयोध्या नही अब आपके लिए
तुलसी बाल्मीकि आँखों से अश्रु बरसा रहें हैं
भ्र्ष्टाचार गुनाहों की नदी बह रही है यहाँ
रावण ही रावण चहुँ ओर नजर आ रहें है!
रामचरितमानस के राघव, करे किससे शिकायत
सरेआम मर्यादा की, दानव चिता जलारहें हैं!
अविवेकी समाज पर विजय पाना आसान नही
मर्यादा के रक्षक,दुर्दशा भारत की देखो कहाँ जा रहे हैं !!
🌷उर्मिला सिंह
मन मे उठते गिरते भावों को पन्नो पर कविता गजल और गीत में बिखेर कर मनको कुछ सुकून मिलता है
जिन्दगी ख़फ़ा तुझसे अब सारे नजारे हो गये
उम्र की देहरी पे रुकने को जब मजबूर हो गये!
बेपरवाह जिंदगी हौसलों की कश्ती ले चली थी
जिस जगह पर रुक गई वही किनारे होगये!!
गरीबी की चक्की में पिसते रहे ता उम्र हम
बच्चे हमारे स्कूल जाने को तरसते रहगये!!
सरेआम ज़मीर की बोली लगती है अब यहाँ
चन्द सिक्को पे डोलते ईमान देखते रहगये !
इस दौर को कोसना भी लाजमी होता नही
हर दौर में जयचन्द विभीषण को झेलते रहगये!!
धर्म को खेल बना इन्सान को लड़ाती रही सियासत
सियासत में नेता भी इन्सान से हैवान बनके रहगये!!
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🌷उर्मिला सिंह