Tuesday, 28 May 2019

जीवन की व्यस्तताओं में हम इतने मशगूल हो गये हैं कि वास्तव में जीवन जीने की कला ही भूल गए हैं

इस आपाधापी की जिन्दगी में -
हम  क्या से  क्या  होगये,
वर्षों बीता .....
छत पर सोना  भूल  गये!
पन्नो पर रह गई चाँदनी रातें
चाँद के संग गुफ्तगू भूल गये
तारों को गिनना,उसके संग की,
आँख मिचौली भूल गये!!

डिजिटल के दीवाने पत्राचार को भूल गये
हम क्या से क्या होगये......

बच्चे ! चरखा काटती नानी भूले
परियों की कहानी वाली दादी भूले
अब न रहा वो बचपन,न अंधियारी रातें
बिजली की चकाचौन्ध में.....
जुगनू की रोशनी भूल गये !
हम क्या से क्या हो गये.......

सूख गई रिश्तों की बेले
मुर्झाये मर्यादाओ के फूल
छल कपट के झूलें में....
सत्य की महिमा भूल गये
नफ़रत का विष बोते बोते
प्रेम मोहब्बत की भाषा भूल गये
हम क्या से क्या होगये......

अब न कोई बुदाबादी में
चादर तान के सोता
बिजली के चमकने से बच्चा
ममता की गोदी में छुपता
ना बादल की गर्जन से डर कर
माँ के गले लिपटता

वो बचपन वो प्यार की बातें भूल गये
हम क्या से क्या हो गये.... 

भोर की किरणे
अब नही जगाने आती
कोयल की मीठी आवाजें !!
अब न सुनाई देती......
अब न पक्षियों का कलरव होता
ना दादी के कोमल हांथों का स्पर्श
न दादा की मीठी झिड़की होती
होता नही भाई बहनों का संग!!

जीवन जीने की कला हम भूल गये...
हम क्या से क्या हो गये  ...

नित आती है रात सुहानी
अंचल में ले जज्बातों की कहानी
कुछ कहने कुछ सुनने
पर लफ्जों की कमी होती
ख़ामोशी का साया होता
आंखों में नमी होती....
सावन भादों की रात सुहानी भूल गये
हम क्या से क्या होगये........

        *****0*****
                             
            🌷उर्मिला सिंह























6 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना दी👌👌

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  2. अति सुन्दर

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  3. सही है दी आधुनिकता की दौड़ में संवेदनाओं का समापन हो रहा है।
    सटीक सार्थक रचना।

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  4. हार्दिक धन्यवाद प्रिय कुसुम

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  5. शुक्रिया अभिलाषा

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  6. हार्दिक धन्यवाद अनुराधा

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