जिस नज़ाकत से लहरें
पावों को छूती हैं
यकीन कैसे करूँ कि ये
कश्ती डुबोतीं हैं।।
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जिसे दिल नेअपना समझ कर
विश्वास किया।।
उसीने इस दिल में हजारों
नश्तर चुभाया।
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स्वतंत्रता भी मर्यादित ही,
अच्छी लगती है ।।
लक्ष्मण रेखा के बाहर होते ही,
सीता भी छली जाती हैं।।
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आधुनिकता के चमक दमक ,
जीने की कला नही।।
जुनुनें इश्क में बन के पागल,
जीवन गवाते नही।।
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धर्म, संस्कार कुल की मर्यादा
तुम्ही से होती
यूँ बगैर सोचे समझे किसी को
अपना बनातें नही।।
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उर्मिला सिंह
सुन्दर
ReplyDeleteजी शुक्रिया मान्यवर
Deleteस्वतंत्रता भी मर्यादित ही,
ReplyDeleteअच्छी लगती है ।।
लक्ष्मण रेखा के बाहर होते ही,
सीता भी छली जाती हैं।।
वाह , बहुत सुंदर आदरणीय ।
आभार मान्यवर
Deleteबहुत सुंदर भाव! गूढ़ अर्थ लिए सार्थक सृजन दी।
ReplyDeleteसादर।
स्नेहिल धन्यवाद प्रिय बहन कुसुम
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद साधु चंद्र जी
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