एक कहानी .....जिन्दगी की....
जिन्दगी , जो पतंग की तरह नीले आकाश में उड़ती है ,छूना चाहती है अम्बर को , पर डोर तो किसी और के हाथ में होती है , जितनी ढील मिलती है पतंग उसी हिसाब से उड़ती है ।
आज न जाने क्यों मन सोचने लगा कि सारी बंदिशें नारी के ही लिये क्यों? क्या पुरुष को अनुशासन, संस्कारों की जरूरत नही पड़ती। उनके ह्रदय की संवेदनाओं को जगाना जरूरी नही होता । इन्ही बातों के उधेड़ बुन में बैठी थी कि मेरी एक बचपन की सहेली का फोन आया " आ जाओ आज मेरे यहाँ शाम की चाय एक साथ पीतेें हैं" । विचारों को वहीं स्थगित कर के मैं अपनी सहेली के यहाँ पहुंची, वहाँ मेरी सहेली कुछ मायूस सी लगी। आगे बढ़ कर मैंने उसे गले लगाया तथा पूछा"कैसी हो आज ये खिलता चेहरा मुर्झाया सा क्यों है" । हल्की सी
मुस्कान की एक पतली रेखा उसके अधरों पर खिंच गई।
मुझे समझने में देर नही लगी कि कुछ तो गड़बड़ है। बात आगे बढ़ाने के लिये मैंने कहा ,"सुषमा चाय पिला यार फिर आराम से बात करतें हैं"। कुछ देर हम दोनों शांत बैठे रहे तभी चाय और गरमागरम पकोड़े भी आगये....
फिर क्या था हम दोनों चाय की चुस्कियों के साथ बातें करने लग गये । बातों का सिलसिला कुछ ऐसा चला कि समय का पता ही नही चला ।
तभी उसकी बेटी बाहर से आई ....! उसे देखते ही सुषमा बिफर पड़ी "इतनी देर क्यो ? नित्य तुम कुछ न कुछ बहाना बनाती हो , कभी ट्यूशन, कभी ट्रेनिंग आखिर करती क्या हो ,लड़कियों का इतना घूमना अच्छा नही होता तुम्हे दूसरे के घर जाना है इत्यादि इत्यादि.."..। मैं आवाक कभी उसे कभी उसकी लड़की को देखती रही । अन्त में मुझसे रहा नही गया मैने पूछ ही लिया " सुषमा! ...यही पश्न तुमने अपने लड़के से कभी पूछा ?शायद नही" .....उसने तपाक से उत्तर दिया "वह तो लड़का है कौन दूसरे के घर जाना है"...
आश्चर्य चकित मत होइए ये घर - घर की कहानी है
आज भी कितने घरों में यह सोच पल्लवित पुष्पित हो रही है। सुषमा की लड़की पर्स बैग ऐसे ही समानों का बिजनेस करती है फिर भी उसपर अंकुश और बेटा पढ़ रहा है पर स्वतंत्र । उसे मैंने समझाया और कहा की लड़की को उसकी जिन्दगी जीने दो उसके पर मत काटो उड़ान भरने दो......।
सुषमा से गले मिलते हुवे मैं सोचती रही ..........
नारी बंदिशों में कब तक जीती रहेगी -- कभी माँ बाप ने बन्दिशों का संस्कार नाम दे दिया-- कभी सास ससुर ने परम्पराओं एवम अनुशासन के नाम पर जंजीरों में जकड़ दिया , पतिदेव ने अपनी इक्छाओं , सपनो को समर्पित कर
वफ़ा का नाम दिया , बच्चे उससे भी दो कदम आगे नई एवम पुरानी सोच का अन्तर बता दिया। मैं सोच में ठगी ठगी सी नारी को महसूस करती रही।
क्या विडम्बना है , .... ! जिन्दगी हमारी ,पर हमारी हर साँस पर दूसरों का कब्जा और हमने इन्ही सांसों को जिन्दगी का नाम दे दिया ..........
आखिर क्यों......क्यों.......
🌷उर्मिला सिंह
सच कहा दी.. नारी कब अपनी ज़िंदगी का फैसला ले पाती है वो जीती ही है दूसरों के लिए उनकी मर्जी से, उसकी खुद की पहचान कहाँ कभी पिता तो कभी पति नाम से जानी जाती है।बहुत सुंदर और सटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद प्रिय अनुराधा
Deleteबहुत सही लिखा है...
ReplyDeleteसमाज को अपनी सोच बदलनी होगी ...
जबतक सोच में आमूलचूल परिवर्तन नही होगा तबतक हमारे समाज मे नारियों को अपना उचित स्थान , जिसकेलिये वो हक़दार हैं,नही प्राप्त हो सकता...
धन्यवाद जी
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