-*-* कविता मैं जान न पाई *-*-
कविता, मैं जान न पाई,
तुम क्या हो !
क्या तुम एक सपना हो !
या उर सागर की,
उठती - गिरती लहरें हो ?
जीवन की सच्चाई हो,
या भावों और उमंगों की -
बहती दरिया हो !
मैं जान न पाई तुम क्या हो ?
कविता, क्या तुम...!
जीवन का अनुभव हो !
अंतर-मन की पीड़ा हो !
या सच - झूठ बनाने की -
रखती अद्भुत क्षमता हो !
मन के घावों को सहला ,
निर्झर्णि सी बहती -
या सुख की अभिव्यक्ति हो !
मैं जान न पाई तुम क्या हो ?
पर कभी - कभी मुझको...
ये भी लगता है... तुम -
मन - आत्मा की कुंजी हो -
या जीवन के उतार - चढ़ाव...
दर्शाने वाली सीढ़ी हो !
मन के कोमल भावों को ,
उद्ध्रित करती लेखनी हो...
या अनुरागमयी सखी हो !
फ़िर भी ये सच है...
मैं जान न पाई तुम क्या हो !!!
🌷उर्मिला सिंह
वाह !दी जी बहुत सुन्दर
ReplyDeleteकविता जीवन का अपना अपना अनुभव है
सादर
धन्यवाद प्रिय अनिता ।
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