पांव ज़मीं पर टिका नहीं, ख्वाब देखता रहा चांद तारों का ता- उम्र इन्सान...
ज़ज्बा,त्याग, कुर्बानी सीखा नहीं,इंसानियत का खून करता रहा ता -उम्र इन्सान!
आँखों में नफ़रत का सागर लिए, धर्म की दुहाई देता रहा इन्सान......
मिट सकी न तृष्णा मन की, आवारा बादलों सा घूमता रहा ता-उम्र इन्सान!
है फिक्र किसी के जख्मों की कौन करता यहाँ .....
जिन्दा रखने के लिए नमकदान लिए, मौका ढूंढता रहा
ता - उम्र इन्सान!
दिख रही बेज़ार सी, हर नज़र वक्त के हाथों यहां....
अभिमान में डूबा, दुवा मांगता रहा ता - उम्र इन्सान!
कद बढ़ाने का आशिक रहा, दिन रात आदमी ...
पर दिल के दरवाजे सँकरा करता रहा, ता - उम्र इन्सान!
मुफ़लिसी मे जीता रहा, अच्छे दिनों की आस में आदमी...
लाश अपनी कन्धों पर उठाए चलता रहा, ता-उम्र इन्सान!!
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उर्मिला सिंह
आज के इंसानों की आंख खोलती हुई बेबाक रचना जो विज्ञान उचाईयों क़ी पोल खोलती हुई....
ReplyDeleteअति सुंदर सामयिक रचना ....💐💐
हार्दिक धन्य वाद रविन्द्र सिंह यादव जी. चर्चा मंच में शामिल करने के लिए
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया ओंकार जी
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ReplyDeleteकद बढ़ाने का आशिक रहा, दिन रात आदमी ...
ReplyDeleteपर दिल के दरवाजे सँकरा करता रहा, ता - उम्र इन्सान
वाह!!!!
क्या बात...
बहुत लाजवाब।
हार्दिक धन्य वाद सुधा जी
Deleteबहुत सुंदर और सार्थक सृजन दी।
ReplyDeleteहार्दिक धन्य वाद प्रिय कुसुम
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