मुजरिम वकील जज हम ही हैं
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वक्त के साथ साथ रिश्ते भी बदरंग हो जाते हैं
उम्र के इस मोड पर जीने के मायने बदल जाते हैं।।
मन की कचहरी में मुजरिम वकील जज भी हमीं
पर सत्य कहने का बता तूं हौसला कहा से लाऊं ।।
किस यकीं पर उसे अपना कहूं.....
रोशनी आंखों से छीन ली मेरी जिसने.....।
एक जलजला आया बचा न पास कुछ अब मेरे
एक खुद्दारी ही रह गई है किस्मत से पास मेरे ।
ढूंढती हूं यकीं का वो गुलशन जो खो गया कहीं
आस चुपके से अश्कों के कब्रगाह में सो गई कहीं।
उर्मिला सिंह
जीवन का कटु यथार्थ, अत्यंत मार्मिक रचना दी।
ReplyDeleteसादर प्रणाम
सस्नेह।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद श्वेता
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद मान्यवर
Deleteहृदयस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद
Deleteवाह! उर्मिला जी ,बहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteकिस यकीं पर उसे अपना कहूं.....
ReplyDeleteरोशनी आंखों से छीन ली मेरी जिसने.....
भावपूर्ण एव हृदयस्पर्शी सृजन ।
वाह!!!
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद
Deleteमन की कचहरी में मुजरिम वकील जज भी हमीं
ReplyDeleteदी शानदार सृजन सारगर्भित सार्थक।
बहुत बहुत बधाई दी।
स्नेहिल ध्नवाद प्रिय कुसुम
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