Friday, 2 February 2024

बस यूं ही....कलम चल पडी

      बस यूं ही....कलम चल पड़ी।

  जीवन की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों पर

 कभी धूप छांव कभी कंटकों पर चल पड़ी

     आंसू और मुस्कुराहटों सेउलझ पड़ी।।


        बस यूं ही ......कलम चल पड़ी।



        कभी सूनी दीवारों को देखती 

       यादों के चिराग जला कुछ ढूढती

           नज़र आते मकड़ी के जाले

      छिपकली के अंडे टूटी सी खटिया पड़ी।।


           बस यूं ही .....कलम चल पड़ी।



            कुछ नीम की सूखी दातून 

     तो कुछ पुराने दंत मंजन की पुड़िया पड़ी

          साबुन के कुछ टूटे टुकड़े

    गर्द धूल से भरी टूटी आलमारी रोती मिली।।

  

        बस यूं ही .....कलम चल पड़ी।


    मेज पर पडे कुछ पुराने कागज के पुलिंदे,

        बिखरे अपनी करुण दास्तां सुनाते 

           गुजरी रातों की कहानी सुनाते।

       कलम चलती रही शब्द तड़पते रहे

    रूह सुनाती रही दस्ता अपनी पड़ी पड़ी।।


          बस यूं ही.....कलम चल पड़ी।


       पूजा की कोठरी के धूप की सुगंध -

      से लगता सुवासित आज भी खंडहर

     मंत्रोचारण घंटे की आवाज गूंजती कानों में

        शंख ध्वनि प्रार्थना के भाव प्रचंड 

   कलम भी दर्द की कराह से हो गई खंड खंड

   कुछ न कह सकी बस चलते चलते रो पड़ी।।


          बस यूं ही.....कलम चल पड़ी।

                     उर्मिला सिंह



           

       

     

     

10 comments:

  1. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद मान्यवर

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  2. वाह! उर्मिला जी ,बहुत खूब!

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  3. हृदय स्पर्शी सृजन उर्मिला जी 🙏

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  4. आंसू और मुस्कुराहटों सेउलझ पड़ी।।
    बस यूं ही ......कलम चल पड़ी।
    वाह!!!
    बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन ।

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  5. कलम चलती रहे, अफ़साने लिखती रहे. संवेदना बची रहे. अभिनन्दन, उर्मिला जी.

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  6. बहुत बहुत आभार नुपूर जी

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