जब हम मना रहे गणतंत्र दिवस थे
अम्बर छू रहा तिरंगा था
हर भारतवासी का मस्तक
भारत के गौरव से ऊंचा था।
पर गिरी गाज इक ऐसी
शर्मिंदा दसों दिशाएं हुईं
जोअन्नदाता कहते थे अपने को
राष्ट्र प्रेम किंचित मात्र नहीं था उनको।।
उपद्रवी किसानों ने ऐसा खेल खेला
तार तार हुई धरा लालकिला रोया
अपनों ने ही छाती पर वार किया
फूट फूट कर मां भारती का दिल रोया।।
पर चाल नहीं चलने पाएगी
मुठ्ठी भर देश के गद्दारों की
अखंड भारत अखंड रहेगा
राष्ट्रप्रेम सर्वोच्च है जीवन में
बच्चा,बच्चा तुझपर कुर्बान रहेगा।।
उर्मिला सिंह
बन्दे मातरम
सुन्दर समसामयिक रचना, सत्य की विवेचना करती हुई..
ReplyDeleteजिज्ञासा सिंह जी हार्दिक धन्यवाद।
Deleteसामयिक और सशक्त रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका डॉ रूपचंद्र शास्त्री जी।
Deleteसत्य को उजागर करती हुई सामयिक रचना ,बेहतरीन शुभप्रभात नमस्कार
Deleteसामयिक और सशक्त सृजन।
ReplyDelete