जिन्दगी तुम मुझे यूं ख़्वाब दिखाया न करो
तिश्नगी है बहुत उजालों की आस दिलाया न करो।।
करूं शिकवा भला कैसे शिकायत हो गई जिन्दगी
मलहम भी कांटो की नोक से लगाया न करो।
हिय की व्यथा मौन रखना लाज़मी होता है
जिसे गुलशन समझा उसे सहरा बनाया न करो।
उल्फ़ते -- सुकून कहते किसे अनजान रहा सदा
बहारों में पतझड़ को कभी मुस्कुराने दिया न करो।
वक्त के दिए जख्मों का क्या हिसाब दू जिन्दगी
तिनका तिनका सा अब यूं बिखराया न करो।
उर्मिला सिंह
बहुत सुन्दर गीतिका।
ReplyDeleteडॉ रूपचंद्र शास्त्री जी आपका बहुत बहुत आभार।
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ReplyDeleteकामिनी जी ह्रदय से आभार आपका हमारी रचना को शामिल करने के लिए।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ग़ज़ल। आपको बधाई और शुभकामनायें।
ReplyDeleteधन्यवाद वीरेंद्र सिंह जी प्रोत्साहित करने के लिए।
Deleteबहुत अच्छी रचना...
ReplyDeleteसंदीप कुमार जी आभार आपका।
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteशांतनु सान्याल जी हार्दिक धन्यवाद।
Deleteबहुत सुन्दर ग़ज़ल ।
ReplyDeleteमीना जी बहुत बहुत आभार।
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति है दी भावनाओं से ओत-प्रोत।
ReplyDeleteसुंदर/ उमर्दा ।
सादर।
उम्दा पढ़ें सादर।
ReplyDeleteप्रिय कुसुम स्नेहिल धन्यवाद।
Deleteमलहम भी कांटों की नोक से लगाया न करो । बहुत सुंदर रचना उर्मिला जी ।
ReplyDeleteआभार आपका पम्मी जी हमारी रचनाको साझा
ReplyDeleteकरने के लिए।
हार्दिक धन्यवाद जितेंद्र माथुर जी।
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