मैं हर बार तपी कुंदन बन निखरी
कंटक बन में घिर,पुष्प बनी निखरी
फिर भी कदम थके नही रुके नही.....
बियाबान में चलती रही चलती ही रही।।
पँखो को काटा छाटा कितनी बार गया
फिर भी हौसलों का पग अविचल ही रहा
घायल मन पाखी उड़ने को बेचैन रहा....
विस्तृत गगन की छाँव में मन रमा रहा।।
थके नही कदम रुके नही चलते ही रहे....
विश्वासों के मणि मानिक से लबरेज रही
जितने भी तीर चले रुधिर बहे ह्रदय में
उतना ही अडिग विस्वास रहा ह्रदय में
दर्द छलकते, अधरों पर मुस्कान रही।।
थके नही कदम रुके नही चलते ही रहे.....
सौ -सौ बार मरी ,जीने की चाहत में
इंद्रधनुषी सपनों से अदावत कर बैठी
भटक रहा मन अमृत घट की तृष्णा में ....
जख्मों का ज़खीरा साथ लिए हूँ बैठी।।
थके नही कदम रुके नही चलते ही रहे..
उर्मिला सिंह
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना उर्मिला दीदी🙏🙏
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जिज्ञासा जी ।
Deleteअच्छी रचना है |
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आलोक जी।
Deleteआपका आभार अनिता जी मेरी रचना को शामिल करने के लिए।
ReplyDeleteवाह!उर्मिला जी ,सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteसौ -सौ बार मरी ,जीने की चाहत में
ReplyDeleteइंद्रधनुषी सपनों से अदावत कर बैठी
भटक रहा मन अमृत घट की तृष्णा में ....
जख्मों का ज़खीरा साथ लिए हूँ बैठी।।
थके नही कदम रुके नही चलते ही रहे..
और हमेशा चलते ही रहेंगे...हमेशा की तरह लाजबाब....उर्मिला जी,सादर नमन आपको
ह्रदय से आभार कामनी जी,आप के शब्दो से प्रेणना और उत्साह मिलता है।
Deleteबहुत सुंदर गहन आस्था के साथ सुंदर सृजन दी ।
ReplyDeleteसादर।
प्रिय कुसुम अंतर्मन से आभार आपका उत्साह वर्धन के लिए ।
Deleteवाह बेहद सुंदर
ReplyDeleteह्रदय से शुक्रिया विनभारती जी।
Deleteविश्वासों के मणि मानिक से लबरेज रही
ReplyDeleteजितने भी तीर चले रुधिर बहे ह्रदय में
उतना ही अडिग विस्वास रहा ह्रदय में
दर्द छलकते, अधरों पर मुस्कान रही।।
समस्त नारी जाति की पीड़ा को शब्द दे दिए आपने उर्मि दीदी || बहुत बढिया और सुव्यवस्थित लिखा अपने हार्दिक शुभकामनाएं|
सनहिल धन्यवाद प्रिय बहन रेणू जी।
Deleteनारी मन की संवेदनाओं को बाखूबी लिखा है ...
ReplyDeleteसुन्दर शब्द ...
आभार मान्यवर।
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