जिन्दगी ख़फ़ा तुझसे सारे नजारे हो गये
उम्र की देहरी पे रुकने को मजबूर हो गये!
बेपरवाह जिंदगी हौसलों की कश्ती ले चली
जिस जगह पर रुक गई वही किनारे हो गये!!
गरीबी की चक्की में पिसते रहे ता उम्र जो
बच्चे स्कूल जाने को उनके तरसते रह गये!!
सरेआम ज़मीर की बोली लगती रही यहाँ
चन्द सिक्को पे डोलते ईमान देखते रहगये !
इस दौर को कोसना भी लाजमी होता नही
हर दौर में जयचन्द को झेलते रहगये!!
धर्म को खेल बना इन्सान को लड़ाती रही सियासत
सियासत में नेता भी इन्सान से हैवान बन के रहगये!!
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🌷उर्मिला सिंह
अहसासों से भरी सुन्दर ग़ज़ल..।
ReplyDeleteजिज्ञासा जी नमस्ते आभार आपका उत्साहवर्धन करने के लिए।
Deleteश्वेता सिन्हा जी स्नेह ,हमारी रचना को शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteशुक्रिया शांतनु सान्याल जी।
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