तृष्णा के सागर में लिप्त मानव स्वयम को भी भूल जाता है।
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सागर सी तृष्णा, अंत न जिसका होता
मृग मरीचिका सी तृष्णा जीवन घेरे रहता
मोह ,माया भौतिक जीवन,अपरमित इक्छायें
हे अनन्त!तेरी दिव्य ज्योति मुझे अपनी,
लघुता का पल छिन है आभास कराये!!
मेरे विकल मन की व्यथा तेरी करुणा हर लेती!
वाष्प सदृश्य मेरी तृष्णा बादल में घुलमिल जाती!
जीवन के भोग विलास कृतमता का आभास दिलाते
मेरा रोम रोम तेरे दिव्य ज्ञान से आलोकित होता!
आकांक्षाओं के सागर से उबार सही राह दिख लाते!
हेअनन्त आशान्ति के सागर से महाशन्ति की राह दिखाते!!
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🌷ऊर्मिला सिंह
behtarin rachna...sundar bhav k saath
ReplyDeleteFbb
ReplyDeleteवाह दी बहुत सटीक रचना ....नमन
ReplyDelete👏👏👏👏वाह दी
ReplyDeleteयथार्थ रचना दी तृष्णा सागर से भी विशाल और भ्रमित करने वाली ।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २४ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभार आपका ....
Deleteउम्दा रचना.
ReplyDeleteआत्मसात
हार्दिक धन्यवाद
Deleteबेहतरीन रचना 👌
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनिता जी
Deleteउत्कृष्ट सृजन....
ReplyDeleteवाह!!!
हार्दिक आभार यशोदा जी
Deleteबहुत सुंदर रचना 👌
ReplyDeleteधन्यवाद अनुराधा जी
Deleteसार्थक रचना आदरणीय उर्मिला जी |
ReplyDeleteशुक्रिया रेणु जी
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