ऐसी कुछ नेकी करो,जान न पाये कोय,
साक्षी दीनदयालु हों,घट- घट वासी जोय।।
मीठी वाणी कष्ट हरे,कड़वी तीर समान।
काँव-काँव कौवा करे, करे न कोई मान।।
करुणा ह्रदय राखि के,करियो सगरे काज,
अन्तर्यामी देख रहा,वही रखेंगा लाज।।
काम क्रोध मद मोह में,फँसा हुवा संसार,
इनसे मुक्ति कैसे मिले,दिखे न कछु आसार।।
गृहस्थ धर्म कर्म है,करो कर्म दिन रात,
सुमिरन मन करता रहे,इतनी मानो बात।।
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उर्मिला सिंह
वाह!उर्मिला जी ,बहुत खूब!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शुभा जी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर |
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता है यह आपकी उर्मिला जी। सरल भी, सुंदर भी।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मान्यवर।
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