Sunday, 2 December 2018

मन मे उठते गिरते भावों को पन्नो पर कविता गजल और गीत में बिखेर कर मनको कुछ सुकून मिलता है

जिन्दगी  ख़फ़ा तुझसे अब सारे  नजारे  हो गये
उम्र की देहरी पे रुकने को जब मजबूर  हो गये!

बेपरवाह जिंदगी हौसलों की कश्ती ले चली थी
जिस जगह पर रुक गई वही  किनारे होगये!!

गरीबी की चक्की में पिसते रहे ता उम्र हम
बच्चे हमारे स्कूल जाने को तरसते रहगये!!

सरेआम ज़मीर की बोली लगती है अब यहाँ
चन्द  सिक्को पे डोलते ईमान देखते  रहगये !

इस दौर को कोसना भी लाजमी होता नही
हर दौर में जयचन्द विभीषण को झेलते रहगये!!

धर्म को खेल बना इन्सान को लड़ाती रही सियासत
सियासत में नेता भी इन्सान से हैवान बनके रहगये!!
                          ****0****
                                      🌷उर्मिला सिंह


No comments:

Post a Comment