खुशनुमा शहर कोविड के साये में घिर गया।
परिन्दा भी शहर का अब खामोश सा लगता है।।
जिस शहर की सड़कें कभी रात में सोती न थी।
अब,अनजाना मायूसियों का साया भटकता है।।
दूरियां ऐसी बढ़ी की नजदीकियां तरसने लगी।
बाहर बढ़ते कदम देहरी पर ठिठकने लगता है।।
एक जलजला करौना का,आतंक बन छा गया।
मन हरवक्त अनचाही आहट को सुनता है।।
बन्द कमरा बेनूर सी जिन्दगी जिये जा रहे इंसान।
सन्नाटों में बसन्त का मौसम पतझड़ लगता है।
टेलीविजन आँसुओं,सिसकियों का सागर दिखाता है।
आशाओं का महल खण्डहर सा बिखरने लगता है।।
शाम आती चली जाती मिलने को हर दिल तरसता है।
कहां वो दोस्ते कहाँ वो महफ़िल अब सपना सा लगता है।।
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उर्मिला सिंह
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार १७ अप्रैल २०२१ को शाम ५ बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
बहुत बहुत आभार श्वत जी हमारी रचना को शामिल करने के लिए।
Deleteसही कहा आपने,बिलकुल सही चित्रण है कोरोना जैसी महामारी का।
ReplyDeleteधन्यवाद जिज्ञासा जी।
Deleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआलोक सिन्हा जी आभार आपका।
Deleteकोरोना का कहर यही मंज़र दिख रहा । यथार्थ को कहती सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteसुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteओंकार जी हार्दिक धन्यवाद ।
Deleteयथार्थ का चित्रण करती मार्मिक सृजन आदरणीय उर्मिला जी,ये भय का आलम कब खत्म होगा ?
ReplyDeleteकामनी जी धन्यवाद....कब समाप्त होगा इसका उत्तर तो केवल और केवल भगवान के पास है।
Deleteदूरियां ऐसी बढ़ी की नजदीकियां तरसने लगी।
ReplyDeleteबाहर बढ़ते कदम देहरी पर ठिठकने लगता है।।
बहुत सुन्दर सार्थक एवं समसामयिक परिस्थितियों का सुन्दर शब्दचित्रण...।
सुधा जी हार्दिक आभार ।
Deleteबन्द कमरा बेनूर सी जिन्दगी जिये जा रहे इंसान।
ReplyDeleteसन्नाटों में बसन्त का मौसम पतझड़ लगता है।
आज के समय का सटीक चित्रण करती कविता.....
हार्दिक धन्यवाद रूपचन्द्र शास्त्री जी हमारी रचना को शामिल करने के लिए।
ReplyDeleteविकास नैनवाल जी हार्दिक धन्यवाद ।
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