Friday, 16 April 2021

ख़ुशनुमा शहर....

खुशनुमा शहर कोविड के साये में घिर गया।
परिन्दा भी शहर का अब खामोश सा लगता है।।
 
जिस शहर की सड़कें कभी रात में सोती न थी।
 अब,अनजाना मायूसियों का साया भटकता है।।

दूरियां ऐसी बढ़ी की नजदीकियां तरसने लगी।
बाहर बढ़ते कदम देहरी पर ठिठकने लगता है।।

एक जलजला करौना का,आतंक बन छा गया।
मन हरवक्त अनचाही आहट को सुनता है।।

बन्द कमरा बेनूर सी जिन्दगी जिये जा रहे इंसान।
सन्नाटों में बसन्त का मौसम पतझड़ लगता है।

टेलीविजन आँसुओं,सिसकियों का सागर दिखाता है।
आशाओं का महल खण्डहर सा बिखरने लगता है।।
शाम आती चली जाती मिलने को हर दिल तरसता है।
कहां वो दोस्ते कहाँ वो महफ़िल अब सपना सा लगता है।।
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                                  उर्मिला सिंह

17 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना आज शनिवार १७ अप्रैल २०२१ को शाम ५ बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,

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    1. बहुत बहुत आभार श्वत जी हमारी रचना को शामिल करने के लिए।

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  2. सही कहा आपने,बिलकुल सही चित्रण है कोरोना जैसी महामारी का।

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  3. बहुत बहुत सुन्दर

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    1. आलोक सिन्हा जी आभार आपका।

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  4. कोरोना का कहर यही मंज़र दिख रहा । यथार्थ को कहती सुंदर रचना ।

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  5. सुंदर प्रस्तुति.

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    1. ओंकार जी हार्दिक धन्यवाद ।

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  6. यथार्थ का चित्रण करती मार्मिक सृजन आदरणीय उर्मिला जी,ये भय का आलम कब खत्म होगा ?

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    1. कामनी जी धन्यवाद....कब समाप्त होगा इसका उत्तर तो केवल और केवल भगवान के पास है।

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  7. दूरियां ऐसी बढ़ी की नजदीकियां तरसने लगी।
    बाहर बढ़ते कदम देहरी पर ठिठकने लगता है।।
    बहुत सुन्दर सार्थक एवं समसामयिक परिस्थितियों का सुन्दर शब्दचित्रण...।

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    1. सुधा जी हार्दिक आभार ।

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  8. बन्द कमरा बेनूर सी जिन्दगी जिये जा रहे इंसान।
    सन्नाटों में बसन्त का मौसम पतझड़ लगता है।


    आज के समय का सटीक चित्रण करती कविता.....

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  9. हार्दिक धन्यवाद रूपचन्द्र शास्त्री जी हमारी रचना को शामिल करने के लिए।

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  10. विकास नैनवाल जी हार्दिक धन्यवाद ।

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