Monday, 9 September 2019

ज़िन्दगी आहिस्ता आहिस्ता ढलती है......

शाम का समय.....
ढलते सूरज की लालिमा....
आहिस्ता- आहिस्ता......
समुन्द्र के आगोश में.....
विलीन होने लगा......
देखते -देखते.....
अदृश्य होगया........
जिन्दगी भी कुछ ऐसी ही है.......
मृत्युं के आगोश में लुप्त होती ....
इंसान के वश में नही रोक पाना.....
लाचार ....बिचारा सा......इंसान
फिर भी गर्व की झाड़ियों में अटकता.....
अहम के मैले वस्त्रों  में
सत्य असत्य के झूले में झूलता....
जीवन की अनमोल घड़ियां गवांता......
जीवन की उलझनों में उलझा
सुलझाने की कोशिश में
पाप पुण्य की परिधि की...
जंजीरों में जकड़ा
निरंतर प्रयत्नशील
अंत समय पछताता हाथ मलता.......
कर्मों का बोझ सर पर लिए अनन्त में.....
विलीन हो जाता......
जीवन का यथार्थ यही है.....शायद
जो हम समझ नही पाते हैं.......

  🌷उर्मिला सिंह

5 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete

  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना 11 सितंबर 2019 के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति दी

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद प्रिय अनुराधा

      Delete