हाथ में कलम दंगाइयों पर क्रोध बहुत है
सिमट के रह गईं बस्तियां मोहब्बत की यहां
इन्सान अपने चरित्र से गिर गया बहुत है!!
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आईना किसी को गलत नहीं बताता
वक्त लहर है किसी को नहीं बख्शता,
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समय के संग होड़ लगा के चल ने वाला
लहुलुहान पाँवों से काटें नहीं निकला करता!
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लहुलुहान हुई दिल्ली अपनों ने ही ज़ख्म दिया
नफ़रत की आग जला सियासत अपना खेल दिखाता!!
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दिल्ली की हालत पर सुंदर विचार व्यक्त करती हुई सामयिक रचना....
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