Monday, 12 August 2019

कविता मैं जान न पाई तुम क्याहो......

-*-*  कविता मैं जान न पाई *-*-

कविता, मैं जान न पाई,
        तुम क्या हो !
क्या तुम एक सपना हो !
        या उर सागर की,
उठती - गिरती लहरें हो ?
        जीवन की सच्चाई हो,
या भावों और उमंगों की -
        बहती दरिया हो !
मैं जान न पाई  तुम क्या हो ?

कविता, क्या तुम...!
        जीवन का अनुभव हो !
अंतर-मन की पीड़ा हो !
         या सच - झूठ बनाने की -
रखती अद्भुत क्षमता हो !
         मन के घावों को सहला ,
निर्झर्णि सी बहती -
        या सुख की अभिव्यक्ति हो !
मैं जान न पाई  तुम क्या हो ?

पर कभी - कभी मुझको...
          ये भी लगता है...  तुम -
मन - आत्मा की कुंजी हो -
          या जीवन के उतार - चढ़ाव...
दर्शाने वाली सीढ़ी हो !
          मन के कोमल भावों को ,
उद्ध्रित  करती लेखनी हो...
          या अनुरागमयी सखी हो !
फ़िर भी ये सच है...
          मैं जान न पाई तुम क्या हो !!!

                  🌷उर्मिला सिंह

2 comments:

  1. वाह !दी जी बहुत सुन्दर
    कविता जीवन का अपना अपना अनुभव है
    सादर

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  2. धन्यवाद प्रिय अनिता ।

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