Tuesday, 15 June 2021

तृष्णा तूँ न गई मन से...

निडर तृष्णा ....
 बचपन से जवानी तक रहती है मन में....
 मन क्यों वसीभूत होता है तुझ में
 चेहरे की झुर्रियां बालों की सफेदियाँ
 अनदेखी कर तरुणाई आती है क्यों तुझमे
 जवानी,बुढ़ापे की सोच से दूर रहती
 व्याधियों से ग्रसित रहके भी तूँ जवां दिखती
 मृत्यु से भयभीत भी नही दिखती
 नित  फांसती है सभी को जाल में अपने
 नित नए रूप रंग ले के साथ आती
 मन को भरमाती झकझोरती
 अपने बाहुपाश में जकड़ लेती
 छटपटाता बेबस मन पर लाचार तुझ से।
  मानव की आखिरी  हिचकियों में भी
 क्या साथ रहती है तूँ मन के......
 हो सके तो सपने में  ही 
 आके बता जाना 
 राज अपनी निडरता का मन को मेरे।।
         उर्मिला सिंह
 
  
 

6 comments:

  1. हाँ उर्मिला जी। कोई समाधान नहीं है तृष्णा की समस्या का। जो मन पर विजय पाकर इसे नियंत्रित कर ले, वह सौभाग्यशाली है।

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    1. हार्दिक धन्यवाद जितेंद्र जी।

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  2. वैसे तृष्णा न हो तो हम जीते जी जीना छोड़ दें..
    मौत के आखिरी क्षण तक सचमुच ये साथ ही रहती होगी हमारे...।
    बहुत ही चिन्तनपरक लाजवाब सृजन।
    वाह!!!

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    1. बहुत बहुत आभार सुधा जी।

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  3. ताउम्र तृष्णा बनी ही रहती है, बहुत सुंदर प्रस्तुति

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    1. Vinbharti ji हार्दिक धन्यवाद।

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