Monday, 24 August 2020

बाढ़ की विभीषका दानव की तरह मुंह फैलाये जन जीवन को त्रस्त कर रही है।उस समय की मनःस्थिति को चित्रित करती हुई रचना.....

कहीं बारिष का कहर 
कहीं सूखे से त्रस्त जीवन
तेरी माया तूं ही जाने भगवन
कौन समझा ग़रीबी का सफऱ।।

झोपड़ी कच्चे मकान ढह गये
दाने-दाने को सब तरस रहे
हर सांस इस सैलाब में बह रही
नज़र आता नही किनारा कोई।।

उफ़नती नदिया गहराता संकट
दिल डूबता जाता है प्रति पल
कैसे बचाऊं बहती गाय की बछिया
सिर पर बैठी अपनी छोटी सी मुनिया।।

मुट्ठी भर चने सत्तू की पोटलीसाथ लाई हूँ
गहराते तिमिर में हर क्षण डूबती जा रही हूँ
सामने से बहती लाश किसी बच्चे की दिखी
सभी की सांस पल भर को थम सी गई.......।।


बेजान होगई है जिन्दगी सबकी
विस्मृति होगई है सावन कजली
बचे भी तो अन्न के दानों से महरूम हो जाएंगे
बह गईं खुशियां हजारों परिवार की
बच गई बदनसीबी ही बदनीसीबी सबकी।।
          *****0*****
         उर्मिला सिंग

13 comments:

  1. हार्दिक धन्यवाद आपको डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'जी हमारी रचना को शामिल करने के लिए

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  2. सुन्दर प्रस्तुति

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  3. सामायिक, सार्थक, संवेदनाओं से भरा सृजन दी ।
    बहुत सुंदर।

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  4. बाढ मे बदलता देख मनभावन सावन
    भूल गया गाना मल्हार अपने आँगन

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  5. जब जब ऐसी विभीषिकाएँ आती हैं बहुत कुछ विनाश कर जाती हैं ... ख़ाली पन के सिवा कुछ नहीं रहता फिर ...
    बख़ूबी लिखा है इस पीड़ा और त्रासदी पर ...

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    1. हार्दिक धन्यवाद दिगम्बर नासवा जी प्रोत्साहित करने के लिए।

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  6. बाढ़ की त्रासदी पर मर्मस्पर्शी रचना । हार्दिक आभार।

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  7. बाढ़ की त्रासदी पर मर्मस्पर्शी रचना । हार्दिक आभार ।

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    1. शुक्रिया स्वराज्य करुण जी।

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  8. मर्मस्पर्शी सृजन ।

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  9. हार्दिक धन्यवाद मीना भरद्वाज जी।

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