कहीं बारिष का कहर
कहीं सूखे से त्रस्त जीवन
तेरी माया तूं ही जाने भगवन
कौन समझा ग़रीबी का सफऱ।।
झोपड़ी कच्चे मकान ढह गये
दाने-दाने को सब तरस रहे
हर सांस इस सैलाब में बह रही
नज़र आता नही किनारा कोई।।
उफ़नती नदिया गहराता संकट
दिल डूबता जाता है प्रति पल
कैसे बचाऊं बहती गाय की बछिया
सिर पर बैठी अपनी छोटी सी मुनिया।।
मुट्ठी भर चने सत्तू की पोटलीसाथ लाई हूँ
गहराते तिमिर में हर क्षण डूबती जा रही हूँ
सामने से बहती लाश किसी बच्चे की दिखी
सभी की सांस पल भर को थम सी गई.......।।
बेजान होगई है जिन्दगी सबकी
विस्मृति होगई है सावन कजली
बचे भी तो अन्न के दानों से महरूम हो जाएंगे
बह गईं खुशियां हजारों परिवार की
बच गई बदनसीबी ही बदनीसीबी सबकी।।
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उर्मिला सिंग
हार्दिक धन्यवाद आपको डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'जी हमारी रचना को शामिल करने के लिए
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार ओंकार जी।
Deleteसामायिक, सार्थक, संवेदनाओं से भरा सृजन दी ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबाढ मे बदलता देख मनभावन सावन
भूल गया गाना मल्हार अपने आँगन
शुक्रिया प्रीती।
Deleteजब जब ऐसी विभीषिकाएँ आती हैं बहुत कुछ विनाश कर जाती हैं ... ख़ाली पन के सिवा कुछ नहीं रहता फिर ...
ReplyDeleteबख़ूबी लिखा है इस पीड़ा और त्रासदी पर ...
हार्दिक धन्यवाद दिगम्बर नासवा जी प्रोत्साहित करने के लिए।
Deleteबाढ़ की त्रासदी पर मर्मस्पर्शी रचना । हार्दिक आभार।
ReplyDeleteबाढ़ की त्रासदी पर मर्मस्पर्शी रचना । हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteशुक्रिया स्वराज्य करुण जी।
Deleteमर्मस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मीना भरद्वाज जी।
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