कविता.....नवरस
नवरस संचित होते मन में
भावोंं के स्फुरण होते
सुरभित शब्द हार बनते उससे
नव रस बिखरने लगते ।
भाव निकलते जब उर से
कलम सजग हो जाती
पन्ने शब्दों की अगवानी करते
सरस् सरिल सरिता बहती।
विविध भाव अंकुरित पन्नो पर
ममता की दरिया बहती
डोरे डालते भ्रमर कलियों पर
कभी दुश्मन पर तलवार निकलती ।
सजती बारात कभी तारों की
चाँद कभी आंगन मुस्काता
दिग दिगांत सुरभित हो इठलाता
दृग से अनुराग छलकता
शब्द पंखुरी पन्नों पर झरती ।
मन की पीड़ा अधर तक पहुंचती
ह्रदय वेदना से चीख निकलती
पन्ने मुखर कलम संवाद बनाते
मसि मोती सम चमकती
नवरस भाव गुंजित कविता सजती।
उर्मिला सिंह
हार्दिक धन्यवाद डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री जी चर्चा में हमारी रचना को शामिल करने के लिए।
ReplyDeleteमनभावन उत्कृष्ट भाव
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनिता सुधीर जी।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सराहना से परे दी।
ReplyDeleteस्नेहिल धन्यवाद अनिता सैनी जी।
Deleteआ उर्मिला सिंह जी, सुंदर भावों की अभिव्यक्ति! ये पांक्तियाँ बहुत अच्छी हैं:
ReplyDeleteमन की पीड़ा अधर तक पहुंचती
ह्रदय वेदना से चीख निकलती
पन्ने मुखर कलम संवाद बनाते
मसि मोती सम चमकती
हार्दिक साधुवाद!
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सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ
हार्दिक धन्यवाद ब्रजेंद्रनाथ जी।
Deleteबहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन उर्मिला जी, सादर नमन
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कामनी जी आपका।
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