Monday, 21 September 2020

अन्तर्मन में भावों का सागर है ,मन नवरस का संगम है उर्मियाँ जब उद्वलित होती हैं तब गद्य या पद्य का प्रारम्भ होता है, और कविता भी भावों के अनरूप बहने लगती है।

कविता.....नवरस

  नवरस संचित होते मन में 
     भावोंं के स्फुरण होते
  सुरभित शब्द हार बनते उससे
      नव रस बिखरने लगते ।

  भाव निकलते जब उर से
   कलम सजग हो जाती
पन्ने शब्दों की अगवानी करते
  सरस् सरिल सरिता बहती।

 विविध भाव अंकुरित पन्नो  पर
      ममता की दरिया बहती
  डोरे डालते भ्रमर कलियों पर
  कभी दुश्मन पर तलवार निकलती ।

सजती  बारात  कभी  तारों  की 
   चाँद कभी आंगन मुस्काता
दिग दिगांत सुरभित हो इठलाता
    दृग से अनुराग छलकता
 शब्द  पंखुरी  पन्नों  पर झरती । 

  मन की  पीड़ा अधर तक  पहुंचती
     ह्रदय वेदना से चीख निकलती
 पन्ने  मुखर  कलम  संवाद  बनाते
      मसि मोती सम चमकती
 नवरस भाव गुंजित कविता  सजती।

            उर्मिला सिंह
   
   
  
  
     
 

9 comments:

  1. हार्दिक धन्यवाद डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री जी चर्चा में हमारी रचना को शामिल करने के लिए।

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  2. मनभावन उत्कृष्ट भाव

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  3. हार्दिक धन्यवाद अनिता सुधीर जी।

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  4. बहुत ही सुंदर सराहना से परे दी।

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    1. स्नेहिल धन्यवाद अनिता सैनी जी।

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  5. आ उर्मिला सिंह जी, सुंदर भावों की अभिव्यक्ति! ये पांक्तियाँ बहुत अच्छी हैं:
    मन की पीड़ा अधर तक पहुंचती
    ह्रदय वेदना से चीख निकलती
    पन्ने मुखर कलम संवाद बनाते
    मसि मोती सम चमकती
    हार्दिक साधुवाद!
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    सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ

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    1. हार्दिक धन्यवाद ब्रजेंद्रनाथ जी।

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  6. बहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन उर्मिला जी, सादर नमन

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    1. हार्दिक धन्यवाद कामनी जी आपका।

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