बहुत दिनों से रोये नही ,क्या पत्थर के होगये हम
लाखों सदमे हजारों गम फिर भी होती नही पलके नम।।
इल्जाम लगें हैं बहुत पर किस-किस को समझाएं हम
इल्जामों की बस्ती में एहसास को बारहा तरसे हम।।
आंसुओं को मोती कहती है ये दुनिया, जाने- ज़िगर
अश्कों के मोती पलकों के साये में छुपाये रखते हम।।
जितना खुलते हैं उतनी गिरह पड़ती जाती बेवजह
अब तो ये आलम है ख़ुद से बात करने सेें कतराते हम।।
यादें वादों की मृगतृष्णा के जाल में फंसे भटकते रहे हम जीवन का शाश्वत सत्य समझ सारी उम्र रहे जीते हम।।
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उर्मिला सिंह,
मर्मस्पर्शी रचना, अद्भुत, आपकी लेखनी के कायल है हम....
ReplyDeleteस्नेहिल धन्यवाद प्रिय प्रीती।
Deleteबहुत दिनों से रोये नही ,क्या पत्थर के होगये हम
ReplyDeleteलाखों सदमे हजारों गम फिर भी होती नही पलके नम।।
इल्जाम लगें हैं बहुत पर किस-किस को समझाएं हम
इल्जामों की बस्ती में एहसास को बारहा तरसे हम।।
हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय दी अद्भुत है आपकी लेखनी .
सादर प्रणाम
सराहना के लिए आभार प्रिय अनिता सैनी जी।
Deleteअच्छी रचना का सृजन ...
ReplyDeleteदिल को छू लिया...
मार्मिक ...
💐💐
वाह!उर्मिला जी ,बहुत खूब!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शुभा जी।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 24 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहमारी रचना को "पांच लिंकों का आनन्द पर"
Deleteसाझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद पम्मी जी।
अच्छा सृजन ।
ReplyDeleteशुक्रिया हर्ष महाजन जी।
ReplyDeleteबहुत दिनों से रोये नहीं...वाह!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद नीतीश तिवारी जी।
Deleteवाह्ह्ह्ह दी लाजवाब !!
ReplyDeleteसिर्फ उमर्दा ही नहीं सार्थक तथ्य समेटे हर शेर शानदार।
सराहना के लिए स्नेहिल धन्यवाद प्रिय कुसुम।
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