पशुता के झंझावत में दुर्बल होती गाँधी, बुद्ध,की बोली है
कदम-कदम पर लगती यहां अब इंसानियत की बोली है।
संवेदनाओं का सागर सूख गया दया धर्म दफ़्न हुवा
गली,चौराहों पर दिखते अमानवीय इंसानो की टोली है।
जीवन संवेदन हीन हुवा मानवता का नमो निशान मिटा
तृष्णा कैदी मानव,जला रहा प्रेम दया करुणा की होली है
इंसानियत हैवानियत में बदली, क्रूरता का हो रहा तांडव
भावोंं में दुर्भावना विकसित,ये कैसी विषैली हवा चलीहै।
खो रहा जीवन संगीत अनुभव,संकल्प ,दिशा हीन हुए
बर्बरता के ठहाके,सिसक रही इन्सानियत की डोली है।
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उर्मिला सिंह
इंसानियत का दिन प्रतिदिन होने वाले ह्रास का सुन्दर चित्रण ...
ReplyDeleteसुन्दर और सामयिक रचना....
💐💐
वाह! लाजवाब सृजन आदरणीय दी.
ReplyDeleteसादर प्रणाम
आपका हार्दिक धन्यवाद रविन्द्र सिंह यादव जी,मेरी कविता को मंच पर चर्चा के लिए चयन किया इसके लिए पुनः धन्यवाद। शुभ संध्या
ReplyDeleteसुन्दर चित्रण
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मान्यवर
Deleteजीवन संवेदन हीन हुवा मानवता का नमो निशान मिटा
ReplyDeleteतृष्णा कैदी मानव,जला रहा प्रेम दया करुणा की होली है.... बहुत सुंदर और सटीक रचना दी
स्नेहिल धन्यवाद प्रिय अनुराधा जी
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