सपना बड़ा था रात छोटी पड़ गई।
ख्वाब हकीकत में बदलते बदलते रह गया।।
कांटे सूख कर ही टूटते हैं।
फूल क्यो खुश होकर बिखरते हैं?
सच्चाई पर चलने वालों को क्यो लोग समझते नही।
झूठ फरेब करने वाले क्यों सीना ठोंक कर चलते हैं?
काश कभी हसीन ख्वाब मेरे रूबरू होते।
प्रभाती किरणों की तरह मुझसे मिल लिए होते।।
उम्मीद कभी तुम भी ऑ कर पीठ थपथपाती।
तसल्ली की पंखुरियों से दामन महका जाती।।
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उर्मिला सिंह
सुन्दर रचना...
ReplyDeleteसत्य तो सत्य ही होता है किंतु झूठ में भी छाड़िक चमक अधिक होती है...
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बहुत सुंदर दी एक व्यथा सी है ये जिंदगी ।
ReplyDeleteयहां विडम्बनाएं और विसंगतियों का जाल बिछा है।
प्रिय अनिता सैनी जी हमारी रचना को शामिल करने के लिये हार्दिक धन्यवाद।
ReplyDeleteसच्चाई पर चलने वालों को क्यो लोग समझते नही।
ReplyDeleteझूठ फरेब करने वाले क्यों सीना ठोंक कर चलते हैं?
बहुत सुन्दर सटीक एवं सार्थक सृजन।