कुछ यादें ऐसी होती हैं जो पीछा नही छोड़तीं ...
यादों की अमराई में वक्त बे वक्त दस्तक दे ही देती हैं......!
ऐसी ही आज की शाम है.....
बच्चे कहीं गये हुएे हैँ .....!
पतिदेव दोस्तों के साथ बैठे हैं और मैं ख्यालों में जाने कहाँ घूम रही थी....!
बात उन दिनों की है जब मैं वाराणसी में छात्रावास में रह कर पढ़ाई कर रही थी ! गर्मियों का अवकाश समाप्त हो गया था सभी क्षात्राऐं - कुछ पुरानी कुछ नई क्षत्रावास
में एक एक कर प्रवेश ले रही थीं । पुरानी क्षात्राओं को नई लडकियों की थोड़ी खिंचाई करने में आनन्द आता था ..! और इसी क्रम में रविवार का दिन भी समान्य तौर पर हसी मजाक में कट रहा था...।
तभी एक लड़की अपने समान के साथ हम सभी के पास से गुज़री ....
शान्त और सौम्य चेहरा,पतली- दुबली , गोरा रंग, चेहरे पर कहीं कहीं चेचक के दाग किन्तु उसके चेहरे की खूबसूरती में कहीं कोई कमी नही थी ....!
साथ की लड़कियों ने कुछ कहा पर ऐसा लगा जैसे उसने सुन के भी अन- सुना कर दिया । न जाने क्यों , मुझे उसके प्रति एक अजीब सा लगाव महसूस हुआ ....! गुमसुम सी रहने वाली उस लड़की का नाम "देविका"था.. जूनियर होने के कारण उसे दूसरे ब्लॉक में रूम मिला था और वह भी अकेले का।
कभी - कभी मेस में खाना खाने के समय मुलाकात हो जाया करती थी ....,
हाथ जोड़ कर उसका 'दी ' संबोधित करके अभिवादन करना मुझे आज भी याद है.......।
उसे अपनी पढ़ाई ,कॉलेज और रूम के अतिरिक्त किसी से कोई सरोकार नही था....
उसके समकक्ष की लड़कियां उसे घमंडी कहती तो कोई - कोई उसे गवार तक की संज्ञा दे डालती....
उसका मजाक बनाती .....पर देवकी को कोई फर्क नही पड़ता। वह , महाविद्यालय और उसका होस्टल का कमरा।
न तो उसका न कोई मित्र बना और न ही उसे किसी को मित्र बनाने की चाह ही थी .....
इधर काफी दिनों से उससे मुलाकात नही हो रही थी..... ,
उसके अगल बगल रहने वाली लड़कियों से पूछा पर कुछ पता नही चला ......
परन्तु यहीं से निःस्वार्थ मैत्री की डोर में हम बधने लगे ..... मेरे कदम अचानक उसके रूम की तरफ़ चल पड़े और उसके रूम के दरवाजे पर जाकर रुक गये.... किसी तरह से मैंने मन को समझाया और आवाज दिया...'देवकी' , कुछ क्षड़ों बाद ही दरवाजा खुला......
एक बारीक सी आवाज के साथ 'देवकी' मेरे सामने खड़ी थी " अरे दी आप ..." मैंने कहा "इधर तुम कुछ दिनों से दिखाई नही पड़ी सोचा तुमसे मिल आती हूँ ..."
उसके अधरों पर पल भर के लिए स्मित हास्य की रेखा उभर आई ....., उसने कमरे में बैठाया.... मैंने पुनः उससे पूछा क्या "अस्वस्थ हो " उसने कहा "शरीर से नही मन से अस्वस्थ हूँ दी " .....नारी मन में किसी की बात जानने की आकुलता या यूँ कह लीजिए कि जिज्ञासा होती है उसी से प्रेरित मेरे मन ने भी पश्न कर दिया "तुम्हारी शादी हो गई है....."
निर्विकार भाव से उसका उत्तर मुझे मिला "दी सिन्दूर देख रही हैं न अगर इसे शादी कहते हैं तो होगई है...."
इस अप्रत्यासित उतर की मुझे आशा नही थी .....
मैं सोच में पड़ गई कि मैं क्या कहूँ ...मेरे इस उधेड़बुन की अप्रत्याशित चुप्पी देख कर वो स्वतः हँस पड़ी ....
देवकी ने पुनः कहना शुरू किया "मेरी शादी के चार वर्ष कल पूरे हो गए दी ..., बैठिये न आप पहली बार मेरे रूम में आई हैं ,परन्तु आप प्रथम दिन से ही मुझे अच्छी लगती हो,आप न जाने क्यों मुझे अन्य लड़कियों से भिन्न दिखती हो ...." यह कहकर वो चुप हो गई।
फिर इधर उधर की कुछ बाते हुईं..
उस आत्मीयता के क्षण में लगा हम एक दूसरे को अरसे से जानते हैं। उसको सबसे मिलते जुलते रहने की हिदायत देती हुई मैं अपने रूम में आगई।
परन्तु उस दिन मेरा मन पढ़ाई में नही लगा .....
बार - बार देवकी का मासूम चेहरा आ जाता और मैं उसके उत्तर को जितना सुलझाने का प्रयत्न करती उतनी ही उसकी गांठे मजबूत हो जाती.......
उस अनसुलझी गांठ को खोलने के प्रयास में एक सिरा पकड़ती तो दूसरा छूट जाता अंततः उसी उधेड़बुन में जाने कब निद्रा ने मुझे अपने मधुर आगोश में ले लिया। दिन बीतते रहे हम मिलते पर उस विषय पर कोई बात नही होती या यूँ कहें कि उसके मासूम पश्न का उत्तर मेरे पास नही था।
फाइनल परीक्षा हुई परीक्षा देकर जब मैं रूम में आई तो मेरी रूमेट ने बताया की देवकी आई थी और उसने मुझे बुलाया था। दूसरे दिन मेरा आखिरी पेपर था देकर मैं सीधे उसके कमरे में गई ,मुझे देख कर खुश हुई परन्तु डबडबाई आंखों से कह बैठी --ऐसा क्यों होता है जिसे मैं चाहती हूँ वही मुझसे दूर हो जाता है।पहले मां फिर पिताजी और बड़े भाई भाभी का स्नेह अनुराग न जाने कहाँ उड़ कर विलीन होगया। शादी हुई राजकुमार अमेरिका से ब्याहने आया दो दिन साथ रहा गौना की रश्म कर लेजाने का वादा करके जो गया तो पलट कर फिर नही आया । उसके मां बाप मुझे काम करवाने के लिए लेजाना चाहते थे परन्तु मेरे मामा ने नही जाने दिया और मेरा नाम यहां लिखवा दिया।बस मांग में चुटकी भर सिंदूर की सजा भोग रही हूँ।
एक सांस में ही सारी बातें वो कह गई .....मै स्तब्ध,किंकर्तब्यविमूढ़ सी खड़ी रही..... क्या उत्तर देती !बस उसे गले से लगा लिया..... लगता था की वर्षों का रोका हुआ आसुओं का बांध टूट गया हो थोड़ी देर के बाद शांत हुई .....
और नीचे सिर किये हुए ही कहा उसने "आज तक के मेरे जीवन की यही कहानी है। "
अगले अंक में .........
उर्मिला सिंह
बहुत सुन्दर कहानी ....
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना...
पड़कर दिल को छू जाने वाली कहानी लगती है सत्य पर आधारित...
बचपन में ऐसी कई घटनाओं का लोग जिक्र किया करते थे...
समाज के विकृत ढांचे और कुछ लोगों की ओछी मानसिकताओं से ही ऐसी घटनाओं का जन्म होता है ....
अति सुन्दर और सरल शब्दों में लिखी गयी सूंदर कहानी.....����
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 15 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteहार्दिक धन्यवाद यशोदा जी इस कहानी को साझा करने के लिए।
Deleteहार्दिक धन्यवाद यशोदा जी इस कहानी को साझा करने के लिए।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनिता जी हमारी पोस्ट को चयन करने के लिऐ।
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी कहानी
ReplyDeleteशुक्रिया अनुराधा जी
Deleteबहुत मार्मिक कथा है दीदी। ऐसी भुगतभोगियो की कई कहानियाँ मैंने भी सुनी है। बहुत अच्छा लिखा आपने 👌👌 शुभकामनायें और प्रणाम 🙏🙏🌹🌹
ReplyDeleteधन्यवाद प्रिय रेणु जी ।
Deleteकैसी विषम स्थिति..आगे क्या होगा !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जी ,आपकी उत्सुकता देख कर मुझे अपना लिखना सार्थक लगा पुनः धन्यवाद
Deleteशिघ्र ही .....
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteह्रदय से आभार आपका सुशील कुमार जी
Deleteमार्मिक
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मान्यवर
Deleteबहुत मार्मिक कहानी ......
ReplyDeleteसचमुच आगे की कहानी पढ़ने की उत्सुकता जगाती रोचक शब्दावली...।
हार्दिक धन्यवाद सुधा जी,आगे की कहानी भी शीघ्र मिलेगी।
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