दिखता नही अब डाकिया
एक पाती को मन तरसता।
एक पाती को मन तरसता
काश मिल जाये बाँच लेता
बीते दिनों के ख़ुशगवार पल को
प्रिय ! मुट्ठियों में कैद कर लेता।
एक पाती को मन तरसता।
द्वार पर आंखे गड़ी रहती...
ह्रदय में प्रेम किसलय मचलते
डाकिये के लिए प्रतीक्षित नैन मेरे
उर की धड़कनो को तेज करते......।
एक पाती को मन तरसता.....।
शब्द तेरे प्यार में घुले होते
मसि तेरे प्रेमाश्रु से लगते
मोबाईल में शब्दों का समर्पण कहाँ
नवांकुर जो नेह के पाती में उगते !
एक पाती को मन तरसता......।
थैले में ढेर सारी पातिया
सुख दुख के सारे पुलिंदे भरे
साइकिल की घण्टी सुनते.....
खिल जाते चेहरे सबके.....।
एक पाती को मन तरसता।
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उर्मिला सिंह
बहुत सुंदर रचना दी।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रिय श्वेता।
Deleteबहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteआज के युग में जबसे मोबाइल फ़ोन का प्रादुर्भाव हुआ है और व्हाट्सएप्प,फ़ेकबुक तथा यस एम एस के द्वारा संदेशों का आदान प्रदान होने लगा है, इसके कारण जो पहले पत्र की प्रतीक्षा होती थी और हृदय के अंदर उद्गार बना रहता था वो एकदम समाप्त प्राय सा हो गया...
इस भावना की विलुप्ति ही हो गई है..
इस बात को खूबसूरत रचना के माध्यम से बड़े सरल ढंग से दर्शया गया है..
अति सुन्दर...
मोबाईल में शब्दों का समर्पण कहाँ
ReplyDeleteनवांकुर जो नेह के पाती में उगते !
वाह! सुंदर।
शुक्रिया आपका।
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