मैं प्रीत से सम्मोहित शलभ हूँ
दीपशिखा का प्रणयी शलभ हूँ।
स्वर्णिम रूप से घायल ये दृग मेरे
प्रीत के रंग से रंगें ये मृदु पंख मेरे
मिलन की आस संजोये मन में .....
प्रदक्षिणा रत रहता निरन्तर लौ के ।
दीपशिखा का प्रणयी शलभ हूँ।
दीप! तेरी लौ को जलते देख के
आलिंगनबद्ध की ह्रदय में चाह लेके
मधुर मिलन में मिट जाना ध्येय मेरा
है तुम्हारी प्रीत का यही समर्पण मेरा ।
मैं दीप शिखा का प्रणयी शलभ हूँ।
मिलन, विरह होते कहाँ प्रीत में
प्रतिदान मांगता कहा ह्रदय प्रीत में
तुम्हारे अंकपास में चिरसमाधि होगी
मिलन की वही प्रारम्भ और अंत होगा।
मैं दीप शिखा तेरा प्रणयी शलभ हूँ।
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उर्मिला सिंह
हार्दिक धन्यवाद यशोदा जी हमारी कविता को साझा करने के लिए।
ReplyDeleteवाह!उर्मिला जी ,बहुत सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteआभार शुभा जी।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत रचना दी
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