हे प्रभू जब तुम अवतरित हुवे
तो अपनी मुरली की छाप छोड़ गए
माटी अपनी छाप छोड़ जाती है
पक्षी भी जहां से उड़तें हैं वहां --
अपना पंख छोड़ देते हैं.......
फूल पवन में अपनी सुगन्ध छोड़ देता है।
लहरे छाप के रूप में ......
शंख ,सीपियों को छोड़ जाती हैं।
मछली पानी में अपनी गन्ध छोड़ देती है
पर एक इंसान ही ऐसा जीव ......है
जिसके रचयिता भी तुम्ही ........
जीवन देने वाले भी तुम्ही .......
करुणा सत्कार दया सभी कुछ .....
उपहार स्वरूप तुम्हारे द्वारा ही प्रदत्त है
परन्तु मनुष्य अपनी .....
मनुष्यता का छाप क्यों नही छोड़ पाता....
मनुष्य होने की अपनीसुगन्ध कहीं.....
क्यों नही बिखेर पाता......
क्यों नही बिखेर पाता......।
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उर्मिला सिंह
हे प्रभू जब तुम अवतरित हुवे
ReplyDeleteतो अपनी मुरली की छाप छोड़ गए
माटी अपनी छाप छोड़ जाती है
पक्षी भी जहां से उड़तें हैं वहां --
अपना पंख छोड़ देते हैं.......
फूल पवन में अपनी सुगन्ध छोड़ देता है।.. वाह!बहुत ही उत्क्रष्ट सृजन आदरणीय दीदी.
सादर
स्नेहिल धन्यवाद प्रिय अनिता जी।
ReplyDeleteह्र्दयतल से धन्यवाद आपका हमारी रचना को "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में शामिल करने के लिए।
ReplyDeleteकंक्रीट के जंगल, चिमनियों के धुएँ, गन्दी नदियाँ, कई पक्षियों की, जनसैलाब की होड़, धर्म-सम्प्रदाय की कानफ़ाडू शोर ... यही तो हैं मानव के छोड़े हुए छाप .. ब्रह्माण्ड के चित्रपटल पर ...
ReplyDeleteसही कह रहे हैं आप शायद आज के मानव की यही छाप है ।हार्दिक धन्यवाद
Deleteचिंतन जारी रहे... सवाल होता रहे... मानव में परिवर्तन होगा
ReplyDeleteजी शुक्रिया।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteसुंदर बिंबों से सजी रचना, एकदम सटीक प्रश्न !
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