प्रकृत से छेड़छाड़ जितना
मानव करता गया
उतना ही जीवन उसका
अभिशापित होता गया ।
निर्मल गंगा मैली हुई
हवाओं में विष घुलता गया
पराजित होने लगा इंसान
जब से मनमानी करने लगा ।
ऊँची आकांक्षाओं के वशीभूत
धरती से वृक्ष कटने लगा
ये कैसे दिन आगये .....
तपती दोपहरी में इंसान
छाया को तरसने लगा।
तम जरूरत से जियादा
अँधियारा दिखा रहा
प्रकृति के अभिशाप का
असर गहरा दिख रहा
सूरज भी न जानें क्यों .....
अब साँवला नजर आने लगा ।
निर्दयता का तांडव
हो रहा चहुं ओर हैं
प्रजातन्त्र मुँह छुपाये रो रहा
फिर भी आश की डाली
मुरझाई नही.....
नव विहान की किरण-का
प्रतीक्षित संसार है ।।
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उर्मिला सिंह
बहुत सुंदर दीदी आपक नम्बर देवो दीदी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद भाई ।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 13 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteनमस्ते यशोदा जी!हमारी रैना को शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteनमस्ते यशोदा जी !हमारी रचना को शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteबहुत सुंदर रचना....
ReplyDeleteप्रकृति का दोहन एक सीमा तक ही होनी चाहिए...
अन्यथा प्रकृति के प्रकोप का सामना करना ही पड़ेगा...
मानव सभ्यता को सतर्क करती हुई उत्कृष्ट रचना....
💐💐
लाजवाब अभिव्यक्ति सहज सरल शब्दों में...एक एक बंद हृदयस्पर्शी ...यथार्थ को इंगित करता .
ReplyDeleteवाह! आदरणीय उर्मिला दीदी .
स्नेहिल आभार प्रिय अनिता जी।
Deleteनयी सुबह का सन्देश देती सुन्दर रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मान्यवर।
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