भाओं से अविभूत ये मन
रीति जगत की कैसे समझे!
कोलाहल ही कोलाहल है,
मन संघर्षों से कैसे जूझे !
जग में भीड़ बहुत है
तन्हा-तन्हा है ये मन !
खोया प्रीत का मधुबन,
मिलता कब मन से मन !!
हर चेहरे पर आवरण
रंग अहम का गहरा है
सुने टेर कौन दिल की,
सभी यहाँ अकेला है !!
अनकही व्यथा ,कैदी मन
शब्दो को बनवास मिला
मन की पाती का गुलाब
बिन उजास गन्धहीन हुवा!!
अन्तस् में तूफान मचा करता
अनुरागी मन क्रन्दन करता
आंसू के मोती रात में खनके
पल पल गिनू व्यथा के मनके!!
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🌷ऊर्मिला सिंह
वाह दी बहुत सुंदर मन का विह्वल स्पंदन।
ReplyDeleteअनकही व्यथा ,कैदी मन
शब्दो को बनवास मिला
मन की पाती का गुलाब
बिन उजास गन्धहीन हुवा!!
बहुत सुंदर पंक्तियाँ दी।
धन्यवाद प्रिय श्वेता
Deleteबहुत सुंदर सृजन दी अंतर मन को छू गया ।
ReplyDeleteवाह्ह्ह्।
धन्यवाद प्रिय कुसुम
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