Monday, 16 December 2019

विवशता मन की

      भाओं से अविभूत ये मन 
     रीति जगत की कैसे समझे!
     कोलाहल ही कोलाहल है,
     मन संघर्षों  से  कैसे  जूझे !

     जग में भीड़ बहुत है
     तन्हा-तन्हा है ये मन !
     खोया प्रीत का मधुबन,
     मिलता कब मन से मन !!
   
      हर चेहरे पर आवरण 
      रंग अहम का गहरा है
      सुने टेर कौन दिल की,
      सभी यहाँ अकेला है !!

     अनकही व्यथा ,कैदी मन
     शब्दो को बनवास मिला
     मन की पाती  का गुलाब
     बिन उजास गन्धहीन हुवा!!

     अन्तस् में तूफान मचा करता
     अनुरागी मन  क्रन्दन  करता
     आंसू के मोती रात में खनके
     पल पल गिनू व्यथा के मनके!!
    
          ****0****
                  🌷ऊर्मिला सिंह





       
       

4 comments:

  1. वाह दी बहुत सुंदर मन का विह्वल स्पंदन।
    अनकही व्यथा ,कैदी मन
    शब्दो को बनवास मिला
    मन की पाती का गुलाब
    बिन उजास गन्धहीन हुवा!!
    बहुत सुंदर पंक्तियाँ दी।

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  2. बहुत सुंदर सृजन दी अंतर मन को छू गया ।
    वाह्ह्ह्।

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