मजबूरियों के जाल में फंसी हुई है गांवों की जिन्दगी
पश्ननों के भँवर में उलझी आज भी गाँवों कि जिन्दगी
खुशियाँ मिली जिनकी बदौलत भूल जातें है उन्हें नेता
आज भी भूखे पेट,तंगहाल में हैं गाँवों की जिंदगी !!
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🌷उर्मिला सिंह
Saturday, 17 November 2018
गाँवों की जिंदगी
Thursday, 15 November 2018
मुक्तक
गरीबी.....
हम गरीबों की भी अजब जिंदगानी है
दफ़्न होती निशदिन अस्मत हमारी है
कौन समझे पीर ज़ख्मी दिल की यहाँ
रोटी का टुकड़ा दीवाली होली हमारी है
सियासत.....
सियासत की मची गहमा गहमी है
मौसम सर्दियों का हवाओं में गर्मी है
वोटरों को लुभाने की होड़ भी लगी है
भाग्य का फैसला जनता के पाले में आज
कर्महीनो के चेहरों की हवाइयाँ उड़ी है
वक्त....
वक्त की साजिसों से बच न पाया कोई
चाहे सिकन्दर हो या पोरस कोई
वक्त का मिज़ाज हस्तियाँ मिटा देता है
वक्त महल को भी झोपड़ी बना देता है
अभिमान......
कोमल डाली वृक्ष की आँधी तोड़ न पाय
अकड़ी डाली अहम की पल में टूटी जाय
छुओ अम्बर को जडे न जावो तुम भूल
तरुवर का आस्तित्व है धरा के नीचे मूल
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🌷ऊर्मिला सिंह
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