Monday, 23 September 2019

जिन्दगी से हम दूर होने लगते हैं......... जब

जिन्दगी से हम दूर होने लगते हैं......... जब
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जिन्दगी से हम दूर होने लगते ........ जब.......

हम  अपनी  आदतों के  वश में  हो जातें हैं
जिन्दगी में कुछ नयापन शामिल नहीं  करते
भावनाओं को समझ कर भी अनजान होतें हैं
या अपने स्वाभिमान को कुचलता देखते रहते

तब जिन्दगी. से हम दूर होने लगते........हैं

जब किताबों का पढ़ना बन्द होने लगता है
जब ख्वाबों का कारवां दम तोड़ने लगता है
मन की आवाजों की गूंज जब सुनाई नहीं पडती
अपने आप ही जब आंखे नम होने लगती है

तब जिन्दगी से हम दूर होने लगते........ हैं

जीवन रंग विहीन  हो स्वयम से जब दूर होने लगता 
अपने काम से जब मन स्वयम असन्तुष्ट रहने लगता
मन की दशा जब कागज पर उकेरे मोर सी होती
जो बरसात तो देखता पर पँख फैला नाच नहीं सकता

तब जिन्दगी से हम दूर होने लगते हैं.........

                   🌷उर्मिला सिंह










Thursday, 19 September 2019

एक अनुभूति जो ह्रदय के द्वारे दस्तक देती है.......

सजदे में सिर झुका..... मन में ज्वार उठा.......

हम सजदों  में हसरतों के ख़ातिर गिरते रहे
  तूँ नित्य नये रूपों में मुझे रोमांचित करते रहे
  बन्द पलकों में मेरे, नये नये रुप दिखाते रहे
  आज ये कैसी चेतना मनमें जागृति हुई
  हसरतों के पँख मैंने स्वयम ही कतर डाले
  आँखों के सभी आवरण हटने लगे
  जीवन आनन्द से ओतप्रोत हो उठा
  सजदे में सिर मेरा तेरे चरणों में झुक गया!!
 
              🌷उर्मिला सिंह

नई पीढ़ी और उनकी सोच..........

वृद्ध आश्रमों में माँ बाप नई पीढ़ी की सोच
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अजब दस्तूर है ,
अब इस जहाँ का ,
ज़िन्दगी आखिरी सीढ़ियों  पर ,
माँगती है सहारा ,
वृद्ध आश्रमों का ।

जिन्हें कलेजे से लगाया ,
आँखों में बसाया ,
ममता नें हर ,
मंदिर-मस्जिदों के चौकठ पर,
दुआओं के लिए आँचल को फैलाया,
वहीँ हो गए आज बेगाने क्यों ?

ये कैसी विडम्बना है ?
ये कैसी हवा है ?
जिन बाँहों नें झुलाया,
थपकियाँ देकर सुलाया ,
तुम्हे सुखी देखने को ,
दुःख को भी गले लगाया;
उन्ही को तुमने ,
तूफानों  के हवाले कर दिया।

निर्दयता की तलवार ने ,
भावनाओं का क़त्ल कर दिया ;
ममता को बक्शा नहीं ,
सूली पे चढ़ा दिया ।
उड़ा डाली धज्जियाँ ,
भारत की संस्कृति-संस्कार की।

जीवन गुजारा था जो तुमने ,
जिनकी छत्र-छाया में ,
वो कीमत माँगते नहीं ,
अपने दूध की तुमसे ,
केवल प्यार माँगते है,
सम्मान माँगते है ;
कुछ दिन तुम्हारे साथ ;
जीने का --अधिकार माँगते हैं।
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आज के नवयुवक नवयुवतियों को समर्पित है!

Friday, 13 September 2019

एक सैनिक कि पत्नी की व्यथा जो खामोशियों के साये मेंढकी रहती है।


ख़ामोशी.....ख़ामोशी.....बस......ख़ामोशी
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कुछ टूटा.....कोई आवाज नहीं.....बेइंतहा दर्द पर आह नहीं

सिर्फ और सिर्फ एक ख़ामोशी......ख़ामोशी........

अश्क झरे आंखो से पर अधरो से सिसकी भी नहीं.....

दिल का दर्द कहें किससे ख़ामोश हुई जिन्दगी सारी.....

खामोशियों के जाल में जकड़ी है जिन्दगी.......

तुम क्या रूठे दुनिया रूठ गई मेरी.........

पर आत्मा मेरी सरहद पर भटकती रहती है

जहां तुम शहीद हुए थे........

शरीर ही हमारा है आत्मा तो तुम्हीं में बसती थी....

शहीद की अर्धांगिनी विधवा होती नहीं.....

ललाट का सिंदुर भले मिट जाता है ......

पर देश भक्ति की लालिमा से पत्नी का .....

भाल चमकता रहता है सदा .....

खामोशियों के आवरण से ढका

उसकी वीर गाथा सुनाता रहेगा सदा....

              🌷उर्मिला सिंह





Wednesday, 11 September 2019

गौ माता जिसे हम पूजते हैं चरण छूते हैं .......उसी की आत्म कथा

एक गाय की आत्म कथा ..........!!     

आज मैं एक खूँटे से दूसरे खूंटे में बंधी !
  पुराने रिश्तों को छोड़ आने का गम ,
  नये रिश्तों से जुड़ने की मीठी खुशी ,
  गले में बड़ी- बड़ी मोतियों की माला,
   उसमे एक प्यारी सी घण्टी पहन मैं,
  जब गला घुमाती मधुर सी आवाज आती ,
  मैं अपने नए रूप पे इतराती फूली न समाती !
           
सूर्य की किरणों के संग गुन - गुनाता ,
  घर का मालिक बर्तन में दूध निकालता ,
  उत्साह से जै गौ माता कहता चला जाता ,
  नित्य का यही क्रम ,खाने की भी कमी नही ,
  बच्चे  भी  आ  मुझे  प्यार से  चूमते  खेलते ,
  इतने आदर-सत्कार -प्रेम पा मैं फुली न समाती !  

  जिन्दगी बीतती रही , हरी दूब भी खाने को मिलती !
   पर  खुशी  के  पल  , पंख  लगा  कर उड़  चला ,
   उम्र  बढ़ती  गई  , दो बाछा एक बाछी भी दिया ,
   पर दूध भी उम्र के साथ - साथ  कम  होने लगा ,
    एक दिन वह भी आया जब मेरा सौदा होने लगा .
    निरीह , कमजोर  खाना  हलक  के  नीचे नजाता!
        
खरीद-फरोख्त की बातें चलीं ,बिछुड़ने का दर्द होने लगा !      
निरीह प्राणी थी पर प्यार की भाषा तो जानती थी,
इंसानो  की  दुनीयाँ  में  प्यार  की  होती  कीमत  नही ,
मैं  विनती करती रही , अपने दूध का वास्ता देती रही,
रोती  रही  कलपती रही  कि अपने  से  अलग न करो
बाछे  दिये  हैं , उन्हें  बेच कर अमीर होजाओ गे !
    
माँ का दर्जा देते रहे जिसे , वही आज गिड - गिड़ाती रही ! 
मेरा  दिया गोबर भी तुम्हारे लिए खाद के काम आएगा !  
तुम्हारे दरवाज़े पर मरूँगी मेरी हड्डिया भी काम आए गी ,                                             
पर तूँ जरा भी पसीजे नहीं , मैं रोती रही , बिलखती रही ,              
तुमने उस कसाई के हाथ चंद पैसों के लिए मुझे बेचदिया ,                          
मैं  तड़प  उठी , चिघारने लगी  पर  तुम रुपये गिनते रहे !

मैं ज़मीन पर गिरी छटपटाती रही , कसाई  हाथ पैर बाँधता रहा !
मैं हाथ जोड़े दुहाई  देती रही पर तुम्हे रहम न आई ,निर्दयी बने रहे,
मेरी आँखें बंद होने लगीं, तुम्हारी गौ माता जिसके चरण तुम छूते ,
           
वही आज निर्दयी कसाई के हाथों बिक गई .........!!
                 पर एक प्रश्न है  ....?      किसे कहुँ ....?    
                  तुम्हें .....!! या उसे ....' कसाई '.......॥

                                                        🌷उर्मिल सिंह                                                        
                                                                                                                                      
                  

                      

                      
                    

Tuesday, 10 September 2019

अंतर्मन की लहरों से निकली कुछ अनुभूतियां.....

मिट्टी का तन........
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कितने  आये  और  चले गये
कितने  बने  राजा  और  रानी
यादों के  गुलशन में खिले वही
दी राष्ट्र हित में जिसने कुर्बानी!!
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मिट्टी का तन  मिट्टी में मिल जाएगा
होगा कोई एक इतिहास रचा जाएगा
सभ्यता का आवरण ओढ़े बैठे लोग यहां
हत्यारा भी आज यहां शरीफ कहलाएगा!!

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सत्य  का द्वार  अध्यन नहीं अनुभूति है
सत्य को जानना तपस्चर्या से कम नहीं है
चैतन्य का सागर हृदय में निरंतर गतिमान है
इसे पहचानना ही सत्य की पहचान है !!

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छोटी सी जिन्दगी में व्यवधान बहुत है
तमाशा देखने वाले  यहां इंसान बहुत हैं
जिन्दगी का हम स्वयम ही बना देते तमाशा
वर्ना खुशनुमा जिन्दगी जीना आसान बहुत हैं!!
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             🌷उर्मिला सिंह


Monday, 9 September 2019

ज़िन्दगी आहिस्ता आहिस्ता ढलती है......

शाम का समय.....
ढलते सूरज की लालिमा....
आहिस्ता- आहिस्ता......
समुन्द्र के आगोश में.....
विलीन होने लगा......
देखते -देखते.....
अदृश्य होगया........
जिन्दगी भी कुछ ऐसी ही है.......
मृत्युं के आगोश में लुप्त होती ....
इंसान के वश में नही रोक पाना.....
लाचार ....बिचारा सा......इंसान
फिर भी गर्व की झाड़ियों में अटकता.....
अहम के मैले वस्त्रों  में
सत्य असत्य के झूले में झूलता....
जीवन की अनमोल घड़ियां गवांता......
जीवन की उलझनों में उलझा
सुलझाने की कोशिश में
पाप पुण्य की परिधि की...
जंजीरों में जकड़ा
निरंतर प्रयत्नशील
अंत समय पछताता हाथ मलता.......
कर्मों का बोझ सर पर लिए अनन्त में.....
विलीन हो जाता......
जीवन का यथार्थ यही है.....शायद
जो हम समझ नही पाते हैं.......

  🌷उर्मिला सिंह