कहाँ आसान होता है जीना...
अपनो के कडुवाहट के बाद
जाने क्यों उनपर फिर भी प्यार आता है
माना की प्रेम का धागा एक तरफ़ा है
पर उनकी बेरुखी पर भी प्यार आता है।
ये दिल की नादानियाँ ही कह लीजिए साहेब
कि उनकी नफरतों का भी इंतजार रहता है।।
उम्र का तकाज़ा कहें या.....
उम्र का तकाज़ा कहें या कहें नादानियाँ
सोचती हूँ जमाने की हवा को क्या होगया
हिन्द की संस्कृति पश्चिमी सभ्यता की शिकार हुई
या मां भारती के संस्कारों में कोई कमी रह गई।
सनातन धर्म की सभ्यता भूल कर .....,
बर्बादी के रास्तों पर क्यों चल पड़े......।।
ये नए जमाने के बेटें ,बेटियां......
मन पूछता है...
नारी हो तुम शक्ति पुंज कहलाती हो.......
अताताइयों को क्यों सिरमौर बनाती हो....
प्रेम की भाषा जो समझ सका न कभी....
उसके ऊपर क्यों व्यर्थ समय गवांती हो
मां की देहरी लांघना थी प्रथम भूल तुम्हारी
प्यार आह में बदला,क्यों नही आवाज उठाई थी
नारी दुर्गा काली है, क्या खूब निभाया तुमने....
पैतीस टुकड़ों में कट कर उस दानव के हाथ
जान गवाई.....
मन पूछता है.....
कानून ,अदालत,की धीमी चालें क्यों
.....
राजनीति का रंग चढ़ाती राजनीतिक पार्टियां...
पीड़ा पन्नो पर बिखरती मां बाप के आंसू बहते.....
जंगल जंगल शरीर के हिस्से मिलते......
न्याय की आशा धूमिल पड़ती......
"जनता के द्वारा जनता के लिए,जनता का"
सब हवा में उड़ते अम्बर तक अट्टहास करते
मन बार बार पूछता है देश के ठेकेदारों से....
आखिर कब तक...... कब तक.....
उर्मिला सिंह
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 24 नवंबर 2022 को 'बचपन बीता इस गुलशन में' (चर्चा अंक 4620) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
हमारी रचना को पटल पर रखने के लिए आभारी हूं।
Deleteकिसी के झाँसे में आकर अपना विवेक खो देने का परिणम ही ऐसा ही होता है..
ReplyDeleteआभार प्रतिभा सक्सेना जी
Deleteअपनी संस्कृति को भूलकर वाक़ई बहुत कुछ खो रही है आज कि पीढ़ी
ReplyDeleteसत्य कहा आपने आदरणीया सुन्दर सार्थक और समसामयिक रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अभिलाषा जी
Deleteविवेक का हाथ छोड़ जब भ्रमित मन की बात को प्राथमिकता दी जाएगी तो ऐसा ही होता रहेगा ।
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी
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