Sunday, 9 March 2025

नींद में भटकता मन....

नींद.... में भटकता मन..... 

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नींद में भटकता मन 

चल पड़ा रात में, 

ढ़ूढ़ने सड़क पर..... 

खोए हुए ..... 

अपने अधूरे सपन... 


परन्तु ये सड़क तो.... 


गाड़ी आटो के चीखों से 

आदमियों की बेशुमार भीड़ से 

बलत्कृत आत्माओं के 

क्रन्दन की पीड़ा लिए 

अविरल चली जा रही 

बिना रुके बिना झुके l 


लाचार सा मन 

भीड़ में प्रविष्ट हुआ 

रात के फुटपाथ पर 

सुर्ख लाल धब्बे 

इधर उधर थे पड़े 

कहीं टैक्सियों के अंदर 

खून से सने गद्दे 

लहुलुहान हुआ मन 

खोजती रही उनींदी आंखे 

खोजता रहा  बिचारा मन 


 आखिरकार लौट आया 

 चीख और ठहाकों के मध्य 

 यह सोच कर कि...... 

 सभ्य समाज के 

 पांव के नीचे..... 

 किसी की कुचली...... 

  इच्छाओं के ढेर में.... 

 दब कर निर्जीव सा 

 दम तोड़ दिया होगा 

खोया हुआ मेरा..... 

अधुरा सपन........ 

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उर्मिला सिंह 











3 comments:

  1. ओह्ह्हो... बेहद कटु,मार्मिक रचना दी।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ११ मार्च २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. मार्मिक रचना, एक तो नींद में ऊपर से भटकने भी लगा तो भला कैसे भेंट होगी सपने से, अब्दुल कलाम कहते हैं असली सपने वह हैं जो जागकर देखे जाते हैं

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