Tuesday 22 November 2022

मन पूछता है.....

कहाँ आसान होता है जीना...
अपनो के कडुवाहट के बाद 
जाने क्यों उनपर फिर भी प्यार आता है
 माना की प्रेम का धागा एक तरफ़ा है
 पर उनकी बेरुखी पर भी प्यार आता है।
 ये दिल की नादानियाँ ही कह लीजिए साहेब
 कि उनकी नफरतों का भी इंतजार रहता है।।


उम्र का तकाज़ा कहें या.....

उम्र का तकाज़ा कहें या कहें नादानियाँ
सोचती हूँ जमाने की हवा को क्या होगया
हिन्द की संस्कृति पश्चिमी सभ्यता की शिकार हुई
या मां भारती के संस्कारों में कोई कमी रह गई।
सनातन धर्म की सभ्यता भूल कर .....,
बर्बादी के रास्तों पर क्यों चल पड़े......।।
ये नए जमाने के  बेटें ,बेटियां......

मन पूछता है...

नारी हो तुम शक्ति पुंज कहलाती हो.......
 अताताइयों को क्यों सिरमौर  बनाती हो....
 प्रेम की भाषा जो समझ सका न कभी....
 उसके ऊपर क्यों व्यर्थ समय गवांती हो 
 मां की देहरी लांघना थी प्रथम भूल तुम्हारी 
 प्यार आह में बदला,क्यों नही आवाज उठाई थी
 नारी दुर्गा काली है, क्या खूब निभाया तुमने....
 पैतीस टुकड़ों में कट कर उस दानव के हाथ
                  जान गवाई.....

मन पूछता है.....

कानून ,अदालत,की धीमी चालें क्यों
.....
राजनीति का रंग चढ़ाती राजनीतिक पार्टियां...
पीड़ा पन्नो पर बिखरती मां बाप के आंसू बहते.....
जंगल जंगल शरीर के हिस्से मिलते......
न्याय की आशा धूमिल पड़ती......
"जनता  के द्वारा जनता के लिए,जनता का"
 सब हवा में उड़ते अम्बर तक अट्टहास  करते
 मन बार बार पूछता है देश के ठेकेदारों से....
  आखिर कब तक...... कब तक.....
  
                उर्मिला सिंह
  
 
       
 
 
 













Friday 18 November 2022

कुछ भाव बस यूँ ही.....

    जिस नज़ाकत से लहरें
           पावों को छूती हैं
      यकीन  कैसे करूँ  कि ये
           कश्ती डुबोतीं हैं।।
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      जिसे दिल नेअपना समझ कर
                विश्वास किया।।
       उसीने इस दिल में हजारों 
                 नश्तर चुभाया।
       *********0*********
        स्वतंत्रता भी मर्यादित ही,
               अच्छी लगती है ।।
      लक्ष्मण रेखा के बाहर होते ही,
           सीता भी छली जाती हैं।।              
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       आधुनिकता के चमक दमक ,
                जीने की कला नही।।
        जुनुनें इश्क में बन के पागल,
                 जीवन गवाते नही।।
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       धर्म, संस्कार कुल की मर्यादा 
                तुम्ही से होती
       यूँ बगैर सोचे समझे किसी को
              अपना बनातें नही।।
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                  उर्मिला सिंह



                        
                   
                            
                  
                       
                 
 
           
     
                     


       

Monday 14 November 2022

बचपन के दिन

बचपनकी यादें.....
बचपन के दिन सतरंगी-सतरंगी सपने होते थे!
पलको में बन्दी बन परियों  के  देश पहुँचते थे!!

चिन्ताओं से परे, बेफ़िक्री जीवन होता था,
तितली  को पकड़ते ,फूलो को छूते रहते थे!
बस्ते  कन्धे पर लादे स्कूल  को  चल  देते,
दौड़ लगाते हँसते गाते मस्त हमारे जीवन थे!!

बचपन के दिन सतरंगी-सतरंगी सपने होते थे!
उजली  राते  उजले  मन  उजले  दिन होते थे!!

      बचपन के खेलों में वो मस्ती होती थी,
      खो-खो  कबड्डी  लुका छुपी  होती थी !
      लड़ते - झगड़ते , गले  लग  जाते  थे,
      ऐसे दोस्त हमारे , ऐसी यारी होती थी!!

बचपन के दिन सतरंगी-सतरंगी सपने होते थे!
उजली  राते  उजले  दिन  उजले  मन होते थे!!

     बारिष की बूँदों को पकड़ने दौड़ा करते थे,
     छपक-छपक पानी मे हम भींगा  करते थे !
     गलियों में नाव चलाते ,डाटों की परवाह नही,
    बाबा,चाचा,दादा सबके ,पांव दबाया करते थे!

  बचपन के दिन सतरंगी-सतरंगी सपने होते थे!
  ‎पलकों  में  बंदी  बन परियों के देश पहुँचते थे !!

        दस पैसे का चूरन , चटकारे लेके खाते थे,
        गुड़िया - गुड्डा  बराती  बन ब्याह रचाते थे !
        कच्ची अमिया,हरी मटर की फलियाँ खाते,
        गन्ने   का   रस  पीते   और   पिलाते  थे!!

 बचपन के दिन सतरंगी-सतरंगी सपने होते थे !
 ‎पलकों  में  बंदी  बन परियों के देश पहुंचते थे !!
 
 स्मृति पटल पर ,दिख  जाती  जब बन्दी यादें,
 इन्द्रधनुष सी मन अम्बर पर छा जाती वो बाते!!
 ‎बचपन  के  दिन , याद  तेरी बहुत आती  है,
 ‎जोड़ तोड़ में उलझी जिन्दगी चलती जाती है!!
 ‎
 
 बचपन के दिन सतरंगी-सतरंगी सपने  होते थे !
 उजली  रातें  उजले  दिन उजले  मन  होते  थे !!
                                    
                                                 #उर्मिल

Friday 11 November 2022

ग़ज़ल

मेरे  गीतों  को सुन  हौले  से  मुस्का देना
मन  की  उलझी  गाँठों को  सुलझा  देना!

विस्वासों  की  छाँवों  में  हो बसेरा अपना
छलके जो कभी अश्क  पलकों से उठा लेना!

जब  अनजानी राहें ,घनघोर  अन्धेरा हो
विश्वास, का  दीप इन नयनों में जला देना!

जख्मों के गुलाब बिक़तें हैं इस नगरी में...
मलहम की हो कोई दुकान बता देना!

कामना की शाखों पर  बैठें हैं मौन
अन्तर्मन की गूंज सुनाई दे, वो तरक़ीब बता देना!

                                  उर्मिला सिंह