गुनगुनाओ की सहरा में भी बहांर आजाये।
सुर सजाओ फिजाओं में भी जान आजाये।।
बड़ी बेरुखी से देखा है जिन्दगी ने मुझे।
ज़रा शम्-ए उल्फ़त जलाओ तो चैन आजाये।।
बेज़ार अनमने से चल पड़े सफ़र पर।
हाथों में हाथ ले रोको मुझे तो करार आजाये।।
सुनी डगर सुनी निगाहें सुनसान हैं वादियाँ ।
निगाहे करम हो तेरी तो साँसों में जान आजाये।।
बिखरते ख़्वाबों की सिसकियां दूर तक गूँजती।
बिखरे ख्वाबों को सजा दो तो निखार आजाये।।
उर्मिला सिंह
बिखरते ख़्वाबों की सिसकियां दूर तक गूँजती।
ReplyDeleteबिखरे ख्वाबों को सजा दो तो निखार आजाये।।
..सुंदर अहसास से निकली उत्कृष्ट रचना।
हार्दिक धन्यवाद जिज्ञासा जी।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए आभार आलोक सिन्हा जी
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज मंगलवार (17-5-22) को "देश के रखवाले" (चर्चा अंक 4433) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक धन्यवाद कामिनी जी हमारी रचना को चर्चा मंच पर रखने के लिए।
Deleteबेहतरीन।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सृजन 👌
ReplyDeleteधन्यवाद अनिता जी।
Deleteवाह!दी अलग ही अंदाज कहीं श्रृंगार लगता है कहीं उस मालिक से अर्ज करते शेर।
ReplyDeleteअहा!!
सुंदर।
धन्यवाद प्रिय कुसुम
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